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तपस्या और जाति

तपस्या और जाति

सुक्खं खु दीसइ तवोविसेसो,
न दीसई जाइविसेस कोई

तपविशेष तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, परन्तु कोई जातिविशेष नहीं दिखाई देता

तपस्या से शरीर में जो कृशता पैदा हो जाती है, उसे देखने से पता चल जाता है कि अमुक व्यक्ति तपस्वी है या नहीं| तपस्या से तपस्वी का तन भले ही क्षीण हो; परन्तु मन क्षीण नहीं होता| उसके मुखमण्डल पर चन्द्र के समान सौम्य तेजस्विता छाई रहती है| तपस्वी सदाचारी होता है – सद्गुणों का साधक होता है| इस प्रकार तपस्या से व्यक्ति में जो विशेषता उत्पन्न हो जाती है, वह सबको प्रत्यक्ष दिखाई देती है|

परन्तु मनुष्यों में जिस जातिभेद की कल्पना की गई है – अहंकार के पोषण के लिए अथवा सामाजिक व्यवस्था के लिए विभिन्न कार्यों एवं आजीविका के आधार पर जो अनेक जातियॉं मान ली गयी हैं; वे किसी भी व्यक्ति में दिखाई नहीं देतीं| यदि कोई हरिजन स्नान करके स्वच्छ सुन्दर पोशाक में माथे पर लम्बी चोटी और भाल पर लम्बा तिलक धारण किये हुए कहे; कि मैं ब्राह्मण हूँ तो कौन पहचान सकता है; कि वह हरिजन ही है? कोई नहीं; क्योंकि मनुष्य मात्र की एक ही जाति है|

- उत्तराध्ययन सूत्र 12/37

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