लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है
लोभी व्यक्ति को अपने स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता| वह निन्यानवे के फेर में रहता है| जिसके पास नब्बे पैसे हो जाते हैं, वह चाहता है कि दस पैसे और मिल जायें; तो एक पूरा रुपया हो सकता है | जिसके पास निन्यानवे रुपये होते हैं, वह सोचता है कि कहीं से एक रुपया और मिल जाये तो पूरे सौ रुपये का बँधा नोट हो सकता है अपने पास| इसी प्रकार हजारपति, लखपति बनना चाहता है और लखपति, करोड़पति | इसी को ‘निन्यानवे का चक्कर’ कहते हैं|
लोभ के कारण व्यक्ति समस्त पाप करने के लिए तैयार हो जाता है| हिंसा, झूठ, व्यभिचार, छल, क्रोध, द्वेष आदि कोई भी पाप ऐसा नहीं रहता, जिसे करने में लोभी व्यक्ति को संकोच हो| यही कारण है कि ज्ञानियों ने लोभ को पाप का बाप कहा है|
जब मनुष्य में पापों की प्रवृत्ति रहती है, तब उसमें सद्गुणों के अस्तित्व की आशा नहीं की जा सकती| जीवन में सद्गुणों का ही महत्त्व है; इसलिए सद्गुण-विरोधी लोभ को सर्वनाशक माना गया है|
- दशवैकालिक सूत्र 8/38
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