जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ|
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ||
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ||
जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है
जिसे आत्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान हो जाता है, वह अनात्मतत्त्वों में रमण नहीं करता; क्यों कि वह आत्मभि पदार्थों के स्वरूप को – उनकी क्षणिकताको भी जान लेता है|
इसी प्रकार जो जड़-पदार्थों के स्वभाव को समझ लेता है, वह उनसे भि चिदानन्दमय आत्मतत्त्व में ही रमण करता है – सब अन्य पदार्थों को जानने के बाद वह एक आत्मतत्त्व को जानता है और उसीको स्वीकार करता है|
दार्शनिक भाषा में कही गई इस अद्भुत बात का यही रहस्य है कि हमें आत्मस्वरूप को भलीभॉंति समझने का सबसे पहले प्रयास करना चाहिये ? क्यों कि जो एकज्ञ है, वही सर्वज्ञ है और जो सर्वज्ञ है, वही एकज्ञ|
- आचारांग सूत्र 1/3/4
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