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एक मुज विनती निसुणोज़

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श्री मुनिसुव्रत स्वामी जिन स्तवन

मुनिसुव्रत जिनराय,
एक मुज विनती निसुणोज़
आतमतत्त्व क्युं जाणुं जगद्गुरु,
एह विचार मुज कहीयो;
आतमतत्त्व जाण्या विण निरमल,
चित्तसमाधि नवि लहियो

…कुं.१

कोइ अबंध आतमतत्त माने,
किरिया करतो दीसे;
क्रियातणुं फळ कहो कुण भोगवे,
इम पूछ्युं चित्त रीसे.

….कुं.२

जड चेतन ए आतम
एकज स्थावर जंगम सरिखो;
दु:ख-सुख-शंकर दूषण आवे,
चित्त विचारी जो परिखो.

…कुं.३

एक कहे नित्य ज आतमतत्त
आतम दरिसण लीणो;
कृतविनाश अकृतागम दूषण,
नवि देखे मतिहीणो.

…कुं.४

सुगत मतरागी कहे वादी,
क्षणिक ए आतम जाणो;
बंध-मोक्ष सुख-दु:ख न घटे,
एह विचार मन आणो.

…कुं.५

भूत चतुष्क वरजित आतमतत्त,
सत्ता अलगी न घटे;
अंध शकट जो नजरे न देखे,
तो शुं कीजे शकटे.

…कुं.६

इम अनेक वादी मतिविभ्रम,
संकट पडियो न लहे;
चित्तसमाधि ते माटे पूछुं,
तुम विण तत्त कोइ न कहे.

…कुं.७

वलतुं जगगुरु इणिपरे भाखे,
पक्षपात सवि छंडी;
राग द्वेष मोह पख वर्जित,
आतमशुं रढ मंडी.

…कुं.८

आतमध्यान करे जो कोउ,
सो फिर इणमें नावे;
वाग्जाळ बीजुं सहु जाणे,
एह तत्व चित्त चावे.

…कुं.९

जेणे विवेक धरी ए पख ग्रहियो,
ते तत्त्वज्ञानी कहिये;
श्री मुनिसुव्रत कृपा करो तो,
’आनंदघन’ पद लहिये.

…कुं.१०

अर्थ

गाथा १:-
श्री आनंदधनजी महाराज श्री मुनिसुव्रत स्वामी की विनती करते है, हे जगतगुरु! शुद्घ आत्मा तत्वरुप से कैसी है, यह किस प्रकार जाना जाए, यह मुझे विदित किजीये, क्यों कि आत्मा के तात्विक स्वरुप के ज्ञान के अभाव में चित्त की निर्मल समाधि प्राप्त नहीं हो सकती है|

गाथा २:-
एकांत से संबंधित कितने दार्शनिक आत्मा कर्मबंधरहित है, ऐसा मानते है, पर जब उसने पूछा जाता है, कि अच्छे बुरे कर्मो का फल कौन भुागतेगा? तब वे क्रोधित हो जाते है|

गाथा ३:-
कोई कहते है कि जड एवं चेतन ये सब आत्मा ही है| स्थावर एवं जंगम पदार्थ एक जैसे ही है, जड और चेतन एक दूसरे से भिन्न नहीं है| यदि व्यवस्थित विचार करे और इस मत की परीक्षा करें तो इस मत में सुख और दुःख के मिश्रित होने का दोष दृष्टिगोचर हो जायेगा|

गाथा ४:-
एकांत से आत्म दर्शन में लिन कईयों का कहना है कि आत्म तत्व कूटस्थ नित्य ही है| परंतु अपने इस कथन में कृतनाश एवं अकृतागम ये दो दोष आते है, यह तो वे समझ नहीं सकते हैं|

गाथा ५:-
वौद्घ मत के अनुरागी कहते हैं कि आत्मा क्षणिक है, यह जानते है अथवा मानते हैं तो आत्मा तो बंध, मोक्ष, दुःख, सुख प्रभावित नही कर सकते हैं, यह विचार मन में करके तो देखों|

गाथा ६:-
भूतचतुष्क का अर्थ है पृथ्वी, पानी, वायु एवं आग्न| इन चार भूतो के सिवाय आत्मा नामक कोइ पांचवा पदार्थ जगत में विद्यमान नहीं है, यह कहना प्रचंड असत्य है| क्योंकि दृष्टिहिन मनुष्य अपने समक्ष खडे गाडे को देख नहीं सकता, यद्यपि गाडा जगत में विद्यमान होते हुए भी अपनी दृष्टिमर्यादा के कारण वह उसका उपयोग नहीं कर सकता है, उसके लिये वह गडा वहां होते हुए भी निरर्थक है, ठीक उसी प्रकार केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाला अनुमानादि प्रमाणो को नहीं माननेवाला व्यक्ति भी दृष्टिहिन व्यक्ति जैसा ही है|

गाथा ७:-
इस प्रकार अनेक वादीओं के अलग अलग मतो से निर्मित मतिभ्रमणारुपी जाल में फंसा हुआ साधक, मन में कुछ भी समाधान प्राप्त नहीं कर सरता है, अतः हे जिनेश्वर प्रभु आप से पृच्छा करने के लिए विवश हो गया हुं, क्यों कि आपके बिना कोई अन्य तत्त्व का यर्थाथ स्वरुप प्रकाशीत करने में पूर्ण असमर्थ है|

गाथा ८:-
श्री आनंदधनजी महाराज की हृदयव्यथा सुनकर जगतगुरु श्री जिनराज ने कहा, इन सब पक्षपातों को त्याग दो, और राग-द्वेष-मोह आदि पक्ष से रहित आत्मा के आम प्रकतान बन जाओ|

गाथा ९:-
श्री जीनेश्पर देव कहते है, कि यदि कोई मोक्षार्थी जीव आत्मा का ध्यान करता है, तो वह इस संसार में, अथवा आत्मा से संबंधित भिन्न भिन्न मतो के चक्कर में उपझता ही नहीं, अवितु इसे केवल केवळ वाणी का विलास मानकर चित्तद्वारा सतत आत्मा का चिंतन करते रहता है|

गाथा १० :-
इस प्रकार सत्य एवं असत्य का, स्व एवं पर का विवेक जो मनुष्य आत्मज्ञान के आलंबनपूर्वक करता है, वह वास्तविक अर्थ में तत्त्वज्ञानी है, हे मुनिसुव्रत स्वामी! आपकी कृपा के प्रभाव से ऐसा तत्वज्ञानी आनंदधनरुप मोक्षपद की प्राप्ती करने की मेरी अभिलाषा आप पूर्ण कीजिये|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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1 Comment

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  1. Chandu Lal Jain
    सित॰ 20, 2018 #

    स्तवन के बोल आत्म चिन्तन के लिए प्रेरित करता है। मंत्र मुग्ध करने वाला स्तवन।

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