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श्रावक के जीवनभर करने योग्य १८ कर्तव्य

श्रावक के जीवनभर करने योग्य १८ कर्तव्य

जम्मंमि वासठाणं तिवग्गसिद्धई कारणं उचिअं|
उचिअं विज्जागहणं पाणिगहणं च मित्ताई॥
श्राद्धविधि प्रकरणमें पूज्य आचार्य रत्नशेखरसूरि महाराजने श्रावक के जीवनमें करने योग्य अठारह कर्तव्य बताये हैं|

१) उचित निवास :- जहॉं जिनालय हो और जहॉं श्रमण-श्रमणी भगवंत स्थिरता करते हो ऐसे उपाश्रय के समीप जहॉं धर्म, अर्थ, काम की साधना सरल हो और पडोसी भी दोष, व्यसन, क्लेश, कंकास इत्यादि रहित हो और धर्मकी रुचिवाला हो ऐसे स्थानमें रहना चाहिए| घरमें खिड़कियॉं, दरवाजें ज्यादा नहीं होने चाहिए| घर और दुकान के आसपास, या तो आने जाने के रास्ते पर सिनेमा गृह, बूचड़खाना या दुराचार के स्थान जैसे क्लब आदि नहीं होने चाहिए|

२) उचित विद्याग्रहण :- जिससे इसलोक में सुखरूप आजीविका मिलती रहे, मनमें शांति, समाधि बनी रहे और परलोक साधक धर्म प्रति श्रद्धा का नाश न हो जाय ऐसी विद्या, ऐसा शिक्षण लेना चाहिए | विद्या ग्रहण करने के बाद भी व्यापारआदि अल्प आरंभ-समारंभवाला, अल्प भागदौड़ वाला, वसूली आदि की चिंता रहित और शिष्ट पुरुषो में अनिंद्य हो ऐसा करना चाहिए|

३) पाणिग्रहण (योग्य विवाह) :- भगवानने आठ सालकी उम्रमें ही दीक्षा ग्रहण करने का निर्देश किया है| किन्तु मोहनीय कर्मके उदयसे दीक्षा के भाव न हो पाये, तो कैसी भी स्त्रीके साथ प्रेम में पड़कर पूरी जिंदगी बिगाड़ने के बजाय ऐसी कन्या के साथ विवाह संबंध जोडो जिसका कुल उत्तम हो, जिसमें धर्म के संस्कार हो, संयुक्त कुटुंबकी भावना हो, शील इत्यादि गुण हो, जिससे धर्मकी प्रवृत्ति में बाधक तत्त्व खड़ा न हो| उसके बाद भी ब्रह्मचर्य की अपार महिमा को नजरमें रखकर शक्यतया ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए| किन्तु गर्भरोधक प्रसाधनो का उपयोग करके या गर्भपात जैसे भयंकर पाप करके कामवासना को धधकाना नहीं चाहिए|

चेईअ-पडिम पईट्ठा सुआई पव्वावणा य पयठवणा|
पुत्थयलेहण-वायण पोसहसालाई कारवणं॥
४) योग्य मित्र :- जिसके पर भरोसा रख सकें ऐसा विश्‍वसनीय उत्तम संस्कारी, व्यसन और दुराचार से रहित और धर्ममें प्रेरक बन सके ऐसा मित्र होना चाहिए| अभयकुमार जैसे मित्रको पाकर के कालसौकरिक कसाई का पुत्र सुलस अहिंसाका उपासक बन गया था|

५-६-७) जिनभवन, जिनप्रतिमा रचना, प्रतिष्ठा :- नीतिसे प्राप्त किये हुए अपने धन का उत्कृष्ट लाभ लेने के लिए जिनालय का निर्माण करना चाहिए| उसी तरह जिसमें नूतन जिनालय के निर्माण से आठ गुना फल मिलता है ऐसे जीर्णोद्धार के काम भी करने चाहिए| जिनालयमें इस्तेमाल की हुई सामग्री के प्रत्येक परमाणु पर लाख-लाख साल तक स्वर्गसुख की प्राप्ति होती है ऐसा जिनालय निर्माण का लाभ बताया है| अकेले-न हो सके तो ५-१० का ग्रुप बनाकर भी यह कार्य करना चाहिए|

इस तरह ही खदान से उत्तम संगमरमर का पत्थर शुभ मुहूर्तमें निकलवाकर, उसका अपने गॉंवमें बाजे-गाजे के साथ धूमधाम से प्रवेश कराकर, शिल्पी के पास उसकी इच्छा पूर्ण करने के साथ विधिपूर्वक जिनप्रतिमा का सर्जन करवाना चाहिए| भावना बढ़े तो सुर्वण-चांदी की प्रतिमा भी तैयार करा सकते हैं| बादमें शुभ मुहूर्त में गीतार्थ गुरुभगवंत की निश्रा में उस प्रतिमा के अंजन-प्रतिष्ठा का लाभ लेना चाहिए| भगवान भरानेवाले को दूसरें भवमें साक्षात् भगवान की प्राप्ति होती है| प्रायः करके उसे दरिद्रता, दौर्भाग्य, निंद्यजाति- शरीर, अपमान, रोग, शोक, आदि सहन नहीं करने पड़ते| परमात्मा की अंजनआदि विधि कराने के बाद हर साल प्रतिष्ठादिन के निमित्त को पाकर अट्ठाई-महोत्सव आदि करना चाहिए| इससे परमात्मा के साथ ममत्वभाव-संबंध खड़ा होता है| उस समय गुरुभक्ति, स्वामि वात्सल्य, अनुकंपा और जीवदयाके विशेष कार्यक्रम करने चाहिए|

आजम्मं सम्मत्तं जह सत्ति वयाईं दिक्खगहणं वा|
आरंभ चाऊ-बंभं पडिमाई अंति आराहणा॥
८) पुत्रादि का दीक्षा महोत्सव :- स्वयंने मोहवश होकर संसार बसाया| किन्तु बाद में अपने संतान को शुरुसे ही धर्मके संस्कार देकर और गुरुभगवंतों के परिचय में रखकर संयमजीवन की इच्छा जाग्रत हो ऐसे प्रयत्न करने चाहिए| संसार की पीढ़ी चलेगी तो अठारह पापों की फेक्टरी चलेगी… पुत्र श्रमण बनेगा तो धर्मकी पीढ़ी आगे चलेगी, गौरव बढ़ायेगी| कृष्ण महाराजा अपने संतानोंको संयममार्ग पर जानेकी प्रेरणा देते थे|

यदि अपने संतान को दीक्षाका भाव न हो, तो अन्य दीक्षार्थीका दीक्षा-महोत्सव अपने धन के सद्व्ययसे करना चाहिए| उनके कुटुंब के आर्थिक प्रश्नोंको अच्छी रकम गुप्त रूपसे देकर दूर कर देने चाहिए| एक श्रमण तैयार होता है तो वह एक जिनालय निर्माण से भी अधिक लाभदायक बन जाता है ऐसा समझकर हमेशा ऐसे कार्यमें उत्साही रहना चाहिए| इस का लाभ यह है कि अपना भी इस भवमें या तो अगले भवमें संयमजीवन सुलभ बन जाएगा|

९) पदस्थापन :- आमराजाने बप्पभट्ट सूरिजी महाराजको बडे ठाठसे आचार्य पदवी दिलवाई थी| इस तरह उत्तम मुनि भगवंतोंको आचार्यआदि पद पर स्थापन करानेका लाभ लेना चाहिए| उसमें शक्ति अनुसार महोत्सव में धनव्यय करना चाहिए| बादमें पदवीधर महात्मा से जो भी शासनप्रभावना के कार्य होंगे उसमें आप भी भागीदार बन जायेंगे|

१०) श्रुतभक्ति :- पेथड़शा ने ७ करोड़ रू. खर्च करके और वस्तुपालने १८ करोड़ रू. खर्च करके ज्ञानभंडार तैयार करवाये थे| इस तरह ज्ञानभंडार तैयार कराने चाहिए| उस ज्ञान भंडारको संभालने के लिए योग्य व्यवस्था करनी चाहिए, ग्रंथ लिखने-छपवानेमें लाभ लेना चाहिए| चातुर्मास में व्याख्यान के लिए प्रत बहोराने का चढ़ावा लेकर ज्ञान और ज्ञानी दोनोंकी भक्ति करनी चाहिए| ज्ञान पढ़नेमें उत्साह बढ़ाने के लिए पाठशाला के बालकोमें प्रभावनाआदि करनी चाहिए| अच्छे धार्मिक पुस्तकोंसे घरको भी सुशोभित करना चाहिए| ये सब श्रुतभक्ति हैं| कई लोग धार्मिक पुस्तकें खरीदते तो नही किन्तु प्रभावना में मिले तो भी आशातना का डर दिखाकर या निकम्मे मानकर जिनालयमें रख जाते हैं| हॉं, स्टील की चम्मच, प्याला आदि घरमें बहुत होने पर भी यदि प्रभावनामें मिले तो निकम्मे नहीं लगते, और उसे आयंबिल खाते में नहीं छोड जाते| यदि ज्ञान के साथ संबंध रहेगा तो फिर से मनुष्यभव की प्राप्ति होगी, श्रुतज्ञान की प्राप्ति भी सुलभ बनेगी… और परंपरया केवलज्ञान भी मिलेगा|

११) पौषधशाला का निर्माण :- पौषधशाला का निर्माण कराने से चतुर्विध संघ के सामायिक, पौषधादि आराधना का लाभ मिलता है| साधुभगवंतों को निर्दोष वसति की प्राप्ति होती है| उनकी आराधना का शय्यातर बनने का लाभ मिलता है|

१२) यावज्जीव सम्यक्त्व का पालन करना :- बाल्यवयमें ही गुरुभगवंतके मुखसे, नाण समक्ष सम्यक्त्व व्रत ग्रहण कर लेना चाहिए| बादमें १) तीव्र रसपूर्वक जिनवाणी श्रवण २) चारित्र धर्मकी इच्छा और ३) गुुरुदेव की वैयावच्च ऐसे तीन लिंगसे, और १) आस्तिकता २) अनुकंपा ३) निर्वेद ४) संवेग और ५) उपशम इन पांच लक्षणोंसे, और १) जीवादि तत्त्व का ज्ञान २) ज्ञानी गुरुभगवंत की निश्रा ३) शिथिलाचारीओंसे दूर रहना ४) मिथ्यात्वीओंका संग नहीं करना, ऐसी चार श्रद्धासे, और १) जिनेश्वर जैसे देव, जैन श्रमण जैसे गुरु, जैनमत जैसा धर्म अन्य कोई नहीं हैं ऐसी मनशुद्धि, २) जो कुछ, जितना कुछ अच्छा होगा, वह प्रभुके प्रभाव से ही होगा| अन्य किसीसे वह संभव ही नहीं है ऐसा कहने-बोलने से वचनशुद्धि, ३) कोई भी परिस्थितिमें देव, गुरु के अलावा कहीं भी सिर नहीं झुकायेंगे ऐसी कायशुद्धि, ऐसी तीन शुद्धि से सम्यक्त्वका यावज्जीव पालन करना चाहिए|

श्रावक के जीवनभर करने योग्य १८ कर्तव्य
१३) अणुव्रत स्वीकार :- श्रावकके योग्य १२ व्रतों को जल्द से जल्द समझकर यथाशक्ति गुरुभगवंत समक्ष ग्रहण कर लेने चाहिए| और दीक्षा न ले सके तब तक विशुद्ध रूप से इन व्रतों का अणिशुद्ध पालन करना चाहिए|

१४) दीक्षा स्वीकार :- जब भी परिस्थितियॉं अनुकूल हो जाये, संसार के कटु अनुभवोंसे वैराग्य तीव्र बने, गुरु भगवंतोकी सही प्रेरणा मिले, तब तुरंत ही दीक्षा लेकर इस भवको सार्थक करना चाहिए| पूर्वके महापुरुषोने एक छोटा सा निमित्त पाया और दीक्षा लेकर आत्मकल्याण कर लिया | जैनमत का कहना है कि अपने संसारी जीवन का अर्थ खाया, पिया और राज किया ऐसा नहीं है, किन्तु खाया, पिया और अपना पुण्य बरबाद किया, ऐसा है | सचमुच तो सम्यक्त्व लिया, श्रावक हुए तो आखिर साधु बनकर आत्मकल्याण करें वही मान्य है|

१५) आरंभ त्याग :- उम्र होने पर भी यदि कोई कारणवशात् चारित्र न ले सके, फिर भी व्यापारआदि में से योग्य उम्र में निवृत्ति लेनी चाहिए| संसार के पाप व्यापारों का त्याग कर देना चाहिए और यथाशक्ति जिनालय, तीर्थके कार्यमें लग जाना चाहिए| भूमिका ऐसी बनानी चाहिए कि अपने लिए रसोई बने इतना भी आरंभ न हो|

१६) ब्रह्मचर्य का पालन :- कल्पसूत्रमें सिद्धार्थ-त्रिशलारानी के शयन खंड अलग अलग थे ऐसा सुनकर देदाशाहने भरयुवावयमें पत्नी के साथ शयन नहीं करने का नियम ग्रहण कर लिया था| ब्रह्मचर्य की ताकत पर स्थूलभद्रजी ८४-चौबीशी पर्यन्त अमर रहेंगे| श्रावक अल्पविषयी होता है इसलिए ही संसारभोगोंसे शीघ्र निवृत्त होने की इच्छा रखता है| ब्रह्मचर्य के प्रभावसे भविष्यमें पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत की प्राप्ति कर सकतें हैं| इसलिए ही पवित्र भावपूर्वक पति-पत्नी दोनों को योग्य उम्र होने पर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए| ब्रह्मचर्य पालन के प्रभाव से पेथडशा की शाल को ओढ़ने मात्र पर रोगियों के रोग दूर हो जाते थें|

१७) श्रावक की ११ प्रतिमा वहन करनी चाहिए :- एक-एक महिना की वृद्धि के साथ श्रावक की ग्यारह प्रतिमाको वहन करनी चाहिए और उसके द्वारा सत्व को विकसित करना चाहिए|

१) प्रतिमा :- १ महिने तक बिना अतिचार के सम्यक्त्व पालन और देवपूजा करना|

२) प्रतिमा :- २ महिने तक विराधना किये बिना अणुव्रत पालन करना|

३) प्रतिमा ;- ३ महिने तक दोनों वक्त सामायिक करना|

४) प्रतिमा :- ४ महिने तक पर्वतिथि के दिन अखंड पौषध करना|

५) प्रतिमा :- ५ महिने तक पर्वतिथि के दिन विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना (निर्विकार बनना)

६) प्रतिमा :- ६ महिने तक सतत निरतिचार ब्रह्मचर्य का पालन करना|

७) प्रतिमा :- ७ महिने तक सचित वस्तुका त्याग करना|

८) प्रतिमा :- ८ महिने तक सभी प्रकार के आरंभ-समारंभ का त्याग करना |

९) प्रतिमा :- ९ महिने तक नौकरआदि के पास भी आरंभ-समारंभ नहीं करवाना |

१०) प्रतिमा :- १० महिने तक मुंडन करवाकर चोटी रखना और अपने लिए बनाये हुए आहार का त्याग करना|

११) प्रतिमा :- ११ महिने तक घर छोड़कर, मुंडन या लोच करवाकर ओघा-पात्रादि साधुवेश रखना, साधु जैसे आचारोंका पालन करना, किन्तु ‘‘धर्मलाभ’’ शब्द नहीं बोलना |

१८) अंतिम आराधना :- श्रावक जीवन की आराधना करते करते जब मृत्यु नजदीक आ जाय तब आहारत्याग और कषायत्यागरूप द्रव्य-भाव संलेखना करके विविध अंतिम आराधना का स्वीकार कर लेना चाहिए| पुण्यप्रकाश के स्तवनमें यह अधिकार बताया हुआ है| जिसमें आलोचना, प्रतिक्रमण, क्षमापना, अतिचार त्याग, ममत्व त्याग, चार शरण स्वीकार, दुष्कृत गर्हा, सुकृत अनुमोदना इत्यादि का निर्देश किया है| संथारा दीक्षा की संभावना हो तो वह भी कर लेना चाहिए| अन्यथा शत्रुंजयआदि तीर्थ की यात्रा करके अचित्त भूमि पर संथारा बिछाकर अनशन सह समाधिपूर्वक देहत्याग करना चाहिए|

परिवार जनोंको भी रोना, संसारसंबंधित पूछताछ करना इत्यादि करके मोहभाव में नहीं ले जाना चाहिए| उसके बदले सुकृतों की जाहिरात करके उन्हें सुकृतों की अनुमोदना में ले जाना चाहिए|

इस तरह जीवनभरमें अठारह कर्तव्य का पालन करके मानवभवको सफल करो यही शुभेच्छा के साथ वीतराग वाणी विरुद्ध कुछ भी लिखा हो या बोला हो तो मिच्छामि दुक्कडम्|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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