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यात्रात्रिक – साल का तीसरा कर्तव्य

यात्रात्रिक   साल का तीसरा कर्तव्य

अट्ठाई महोत्सव

देवताएँ प्रभुके जन्मादि कल्याणकों के उत्सव को मनाने के बाद छलकते प्रमोद-हर्षको सार्थक करने के लिए नंदीश्वर द्वीपमें जाकर अट्ठाई महोत्सव करते हैं| भगवानने बताई हुई पर्युषणआदि आराधना निर्विघ्न रूपसे बहुत ही उल्लास सभर संपन्न हुई| ससे उद्भवित हर्षको पूर्ण करने हेतु स्वयं या तो समस्त संघ इकट्ठा होकर अट्ठाई महोत्सव करता है| Continue reading “यात्रात्रिक – साल का तीसरा कर्तव्य” »

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क्षमा-याचना के अवसर पर

क्षमा याचना के अवसर पर

१) खुदको ही अपराधी मानना…दोनों को नहीं|
२) मनसे अपने अपराधों का स्वीकार करना|
३) अपनी भूलके कारण जिसको सहना पड़ा है, उसकी उदारता और सहनशक्ति की प्रशंसा करना|
४) ‘‘फिरसे ऐसी भूल नहीं होगी’’ ऐसे मानसिक संकल्प के साथ उस तरह का वचन देना|
५) जिसके पास क्षमा-याचना करते हो वह शायद तिरस्कार करे या फिटकार दे, तब भी स्वस्थ रहना चाहिए और बिचार करना कि मेरी भूलके कारण उसका दिल कितना जख्मी हुआ होगा कि दिलमें लगी हुई चोट के कारण मुझे इतना धिक्कार दे रहे हैं| अरे ! मैंने कैसा दुष्कृत किया|
६) उस समय या बादमें दूसरा कोई आपकी क्षमा मांगने की हिंमत को दाद दे और ‘फिर भी क्षमा देनेवाले ने कैसा तिरस्कार किया’ कहकर उसकी निंदा करे, तब उसे वास्तविकता बताकर खुले दिलसे ईकरार करना की ‘भाई ! मैंने निर्मम बनकर मेरे अपराधोंसे उनके दिलको जो ठेस पहुंचाई है, उसके सामने यह तिरस्कार बहुत ही सामान्य, गिनती में लेने लायक नहीं है|’ ऐसे बिचारों से मनको क्षमामय बना दें| Continue reading “क्षमा-याचना के अवसर पर” »

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देवद्रव्य की वृद्धि – साल का पाँचवा कर्तव्य

देवद्रव्य की वृद्धि   साल का पाँचवा कर्तव्य
पूर्वके कालमें जिनालयों को खंडित करने के प्रसंग अधिक बनते थे| मुसलमान बादशाह-सुबा इत्यादिने बहुत जिनालयों को खंडित किया| दूसरी तरफ परदेशिओं के राज्यमें जैन व्यापारिओं को असुविधा के कारण आमदानी का प्रश्न भी खडा हुआ| जिनालयों के आधार पर टीकी हुई जैन परंपरा का नाश हो जाए ऐसी परिस्थिति का भी निर्माण होने लगा| अतः उस समय देवद्रव्य की विशेष आवश्यकता खडी हुई| स्वप्न की बोली इत्यादिसे संचित हुई देवद्रव्य की राशिसे जिनालयों के जिर्णोद्धारादि कार्य शुरु रहने से ही आज हमें भव्य जिनालयों का मीरास मिला है| Continue reading “देवद्रव्य की वृद्धि – साल का पाँचवा कर्तव्य” »

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आलोचना शुद्धि – साल का ग्यारहवां कर्तव्य

आलोचना शुद्धि   साल का ग्यारहवां कर्तव्य
यह कर्तव्य अत्यंत महत्वपूर्ण है| अहंकार के कारण जीवको कभी भी अपनी गलती नहीं दिखाई देती|

धमाका हुआ| तब भतीजेने पूछा, ‘‘चाचा ! क्या हुआ ?’’ चाचाने कहा, ‘‘कुछ नहीं बेटा… वह तो मेरी धोती, कफनी और टोपी गिर गई|’’ भतीजेने पुनः प्रश्न किया, ‘‘किन्तु इसमें इतनी आवाज़ ?’’ चाचाने कहा, ‘‘तू समझता नहीं है, उसमें मैं भी था !’’ बात यह है कि चाचा कहने के लिए तैयार नही है कि, ‘‘मैं गिर गया’’| Continue reading “आलोचना शुद्धि – साल का ग्यारहवां कर्तव्य” »

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क्षमापना – एक पर्वाधिराज

क्षमापना   एक पर्वाधिराज
क्षमापना तो पर्वाधिराज के प्राणसमान हैं| जिस तरह हज़ार कि.मी. रेल की पटरी से एक इँच पटरी भी यदि तुट जाये, तो ट्रेन लुढ़क जाती है उसी तरह मनमें एक जीवके प्रति भी यदि द्वेष का अंश रह गया, तो आपकी आराधनाकी पूरी ट्रेन ही लुढ़क जायेगी| जिस तरह कारमें आगे देखनेवाला अकस्मात से बच जाता है, ठीक उसी तरह भूतकाल को भूलकर जो व्यक्ति भविष्यमें आगे बढ़ना चाहता है, वह ही दुर्गतिओंसे बच सकता है| Continue reading “क्षमापना – एक पर्वाधिराज” »

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क्षमा-याचना – आत्मा की शुद्धिकरण

क्षमा याचना   आत्मा की शुद्धिकरण
पॉंच कर्तव्यों में मुख्य कर्तव्य है ‘‘क्षमा’’| और ग्यारह कर्तव्यों में मुख्य कर्तव्य है ‘आलोचना शुद्धि द्वारा आत्मशुद्धि’| ‘‘जीवोको माफ कर दो और आत्मा को साफ कर दो|’’ यह ही पर्वाधिराज पर्युषण का सूत्र है| इसलिए हम कमसे कम इन पर्वदिनों तक भी अपने मन के अहंकार को दूर किनार करके सालभरमें जिनके भी साथ कटु प्रसंग बने हैं उन सभी व्यक्ति के प्रति क्षमा-याचना करके ‘‘मिच्छामि दुक्कडम्’’ का कर्णमधुर हृदयस्पर्शी झंकार सुनाए तो उन को जो शाता और प्रसन्नता की अनुभूति होगी, उससे पुण्य का लाभ तो होगा ही किन्तु साथ साथ हमें भी ‘‘हम इतने तो सज्जन हुए’’ ऐसी भावना अपूर्व तुष्टि देने में निमित्त बनेगी| जी हलका होगा, मन उदार होगा और मुक्त मन के आनंद की अनुभूति होगी| ख्याल रखना ! अहम् और इस आनंद की बिलकुल नहीं पटती| हॉं! आनंद की किंमत ही है अहंत्याग… अभिमान का विसर्जन| Continue reading “क्षमा-याचना – आत्मा की शुद्धिकरण” »

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श्रुतज्ञान की भक्ति – साल का आठवा कर्तव्य

श्रुतज्ञान की भक्ति   साल का आठवा कर्तव्य
सिर्फ क्रियासे हम देशआराधक बन सकते हैं, उस में यदि ज्ञान सम्मिलित हो जाए तब हम सर्वआराधक बन सकते हैं| ज्ञानरहित और ज्ञान सहित की क्रिया में जुगनूं और सूर्य का अंतर है| कर्मनिर्जरा के बारे में अज्ञानीके पूर्व करोड़ वर्ष की साधनासे ज्ञानी की श्वासोश्वास जितने समय में की हुई साधना बढ़ जाती है| अज्ञानी तामली तापसने ६० हजार साल तक छट्ठके पारणे छट्ठ किये थे और इक्कीस बार धोये हुए भात से ही पारणा करते थे| Continue reading “श्रुतज्ञान की भक्ति – साल का आठवा कर्तव्य” »

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स्नात्र महोत्सव – साल का चौथा कर्तव्य

स्नात्र महोत्सव   साल का चौथा कर्तव्य
रोज तो सामान्य रूढ़िगत स्नात्र पढ़ाना चलता है| उसमें विधि पालन की उतनी दरकार नहीं होती| पर सालमें एकबार तो ५६ दिक्कुमारी और ६४ इन्द्रों समेत महामहोत्सव पूर्वक स्नात्र पढ़ाना चाहिये| Continue reading “स्नात्र महोत्सव – साल का चौथा कर्तव्य” »

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क्रोध – एक अग्नि

क्रोध   एक अग्नि
एकबार आये हुए क्रोध में कितने सालों के तप और संयम को भस्मीभूत करने की ताकात है ? यदि कोई ऐसा प्रश्न करें, तो जवाब यह है कि- तप और संयम का उत्कृष्ट काल है देशोन पूर्व क्रोड वर्ष| इतने दीर्घ कालमें तप और संयम की जो साधना कर सकते हैं, उस साधना को भस्मीभूत करने की ताकत एकबार के आये हुए क्रोध में है| Continue reading “क्रोध – एक अग्नि” »

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महापूजा – साल का छट्ठा कर्तव्य

महापूजा   साल का छट्ठा कर्तव्य
आज कल करोड़ो रुपये और कई सालों का परिश्रम लगाने के बाद जिनालय तैयार होता है| जिनालय का पाषाण लाने के लिए बार बार जयपुर इत्यादि स्थानों पर दोड़-धूप चलती हैं| किन्तु बादमें जिस भगवान को बिराजित करना है, और जिस भगवान की प्रतिष्ठा मात्रसे इमारत ‘‘देरासर’’ या ‘‘जिनालय’’ के रूपमें पहचाना जाता है, उस भगवान को लोग एक झटके में कोई भी कारीगर से किसी भी तरह बनाये हुए खरीद लेते हैं, यह अनुचित है| Continue reading “महापूजा – साल का छट्ठा कर्तव्य” »

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