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अनित्यता

अनित्यता

अनित्यं हि जगत् सर्वम्

पद, पैसा और प्रतिष्ठा यदि एक साथ मिल जाए तो अधिक मत इतराना वर्ना जब ये खो जाएँगे तब तड़पना पड़ेगा| रूप, बल और जवानी की अवस्था में बहुत ज्यादा खुश मत होना वर्ना बुढ़ापे में रोना पड़ेगा|

जीवन में प्राप्त उपलब्धियों का उत्सव जरूर मनाना मगर यह मत भूल जाना कि जो मिला है वह हमेशा के लिए रहेगा| जो आज हे वह कल न भी रहे| यहॉं सब कुछ बीतने के लिए ही मिलता है|

इस संसार में समय का पहिया हर चीज पर घूता है अतः सुख के क्षणों में प्रभु से प्रार्थना करना – हे प्रभो ! मुझे इन क्षणिक सुखों में आसक्त मत होने देना, मुझे सोने मत देना|

मुझे सावधान रखना कहीं मैं ङ्गिसल न जाऊँ| संत कबीर ने कहा है – ङ्गङ्घजो सुख में धर्म को नहीं भूलता उसके जीवन में दुःख भी नहीं आतेफफ| यह शरीर, यौवन, परिवार, धन, सत्ता, सुखद संयोग और जीवन सब कुछ अनित्य है| जैसे छोटे बच्चे बड़ी मेहनत और लगन से ताश का घर बनाते हैं और हवा का एक झोंका ऐसा आता है कि वह बना-बनाया महल एक पल में गिर जाता है| ऐसे ही यह जीवन-महल एक दिन धराशायी हो जाएगा|

यदि यह अनित्यता का बोध बार-बार दोहराने से चेतन मन से अचेतन मन में चला जाए तो सुप्त चेतना जाग सकती है और जो जागकर जीते हैं उनके जीवन में कोई तनाव नहीं रहता|

इस दुनिया में विद्वानों का, डॉक्टरों का, वकीलों का तथा राजनेताओं का जितना महत्त्व है उससे कई गुना अधिक सद्गुरूओं का महत्त्व है| यदि संसार में विद्वान आदि न रहें तब भी संसार चल सकता है किन्तु सद्गुरू न रहें तो सन्मार्ग कौन दिखाएगा…..?

भारतीय मनीषियों ने सद्गुरू को परमहंस कहा है क्योंकि वे असार को छोड़कर सार को ग्रहण करते हैं| सद्गुरू जीवन रूपी ट्रेन का स्टेशन है| ट्रेन यदि स्टेशन पर रूकती है तो कोई खतरा नहीं होता बल्कि कोई विकृति हो तो वहां दुरूस्त हो सकती है| स्टेशन पर ही उसे कोयला-पानी मिलता है और कुछ देर के लिए विश्रान्ति भी मिलती है|

सद्गुरू की शरण में भी जब कोई पहुंचता है तो उसके जीवन के विकार दूर हो जाते हैं| उसकी अंधी दौड़ को विश्राम मिलता है एवं उसे जीवन की राह का पाथेय भी प्राप्त होता है|

सद्गुरू के सान्निध्य का हर पल ज्ञान की लौ को प्रज्वलित करने वाला होता है ठीक उसी प्रकार जैसे एक जलता हुआ दीपक दूसरे बुझे दीपकों को प्रज्वलित करने वाला होता है| ऐसे सद्गुरूओं का आदर किया नहीं जाता वह तो अन्तस् की हृदय-सरिता से सहज प्रवाहित होता है| जिसमें न कोई दिखावा है न औपचारिकता और न ही तनाव| ऐसे सद्गुरु नौका की तरह होते हैं स्वयं भी तिरते हैं औरों को भी तारते हैं|

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