जबकि तुम निंदा, ईर्षा, छिद्रान्वेषण, चञ्चलता और मोह से बचकर प्रेम समभाव एवं सन्तोष से अपने मन को सुशिक्षित करोगे|
भय मनुष्य का भयंकर शत्रु है, इसकी जड़ को मन से निर्मूल कर दो, पतन की ओर ले जाने वाली चिंताओं को हृदय से सदा के लिए अलग कर दो| ध्वंसकारी विचार ही तुम्हें निर्बल और मुर्दा बनाते हैं| इससे न तो जीवन को नवीन प्रकाश मिलता है न नसों में नए रक्त का संचार होता है| रक्त संचार के अभाव में मनुष्य दीन हीन बन, असमय में युवावस्था से हाथ धो, अपनी शक्ल सूरत को बूढेपन में बदल देता हैं|
कर्मठ बनो, जो होता है सो होकर रहेगा| व्यर्थ की चिन्ताओं से घुट घुट कर मरना पाप है| गड़े पत्थर, मरे मुर्दें मत उखाड़ो| आत्म चिंतन करो| अपने मन मन्दिर में आज से निष्काम प्रेम, समभाव, सन्तोष एवं सहृदयता की स्थापना कर कायर जीवन की रंगभूमि को ही बदल दो| निम्न गीत सदा मन ही मन गुन गुनाते रहो|
(तर्ज – ओ दूर जाने वाले…)
आनंद शांति मय हम, मंगल स्वरुप पाएं|
अविचल विमल सु-पद में, अविलम्ब जा समाएं ||1||
अरिहन्त सिद्ध शरण है, परमात्म भाव अपना|
जग का ममत्व सारा, समझा अनित्य सपना||2||
हम हैं सदा अकेले, क्यों मुग्ध मन बनाएं|
अविचल विमल सु-पद में, अविलम्ब जा समाएं||3||
अपवित्र देह की अब, आसक्ति छोड़ देंगे|
मिथ्यात्व अव्रतों से निज वृत्ति मोड़ देंगे||4||
सम्यक्त्व धर्म संयम, तप में हृदय रमाएं|
अविचल विमल सु-पद में, अविलम्ब जा समाएं||5||
इस गीत का बार बार चिंतन करने से तुम्हारे हृदय में एक आनन्द की अपूर्व लहर दौड़ने लगेगी, आपके दिल का पुराना उजड़ा बाग हरा-भरा होकर रहेगा| तुम अपने अन्दर एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव करोगे| तुम्हारा मन आनन्द और उत्साह से भर जायेगा|
यदि मानव आत्म-पुरुषार्थ का वास्तविक प्रयोग कर वीतराग दशा की ओर लगन लगा ले तो, वह सहज ही जन्म जन्मान्तर के कर्मों से मुक्त हो मोक्ष-श्री प्राप्त कर लेता है|
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