post icon

मां की, बेटी को सीख

मां की, बेटी को सीख
रानी ने कहा, मदनसेना ! दाम्पत्य जीवन की दिव्यता-शोभा तभी है, जब कि पति-पत्नी सत्ता का मोह छोड़कर परस्पर सेवाभाव, त्यागवृत्ति को अपनाए| अब तुम पराये घर जा रही हो| ससुराल में देव, गुरु, धर्म, स्वधर्मी बन्धु, देवर जेठ नणंद-भोजाई, सास-ससुर, दीन-दु:खी, रोगी और अपने अड़ोस-पड़ोस की सेवा का सारा भार तुम्हारें पर है| इसे ठीक तरह से निभाना|

मदनसेना ! हृदय नहीं चाहता कि तू हमारी आँखों से ओझल हो, किन्तु कन्या की शोभा अपने ससुराल में ही है, अत: तुझे आज विवश हो बिदा देना है|

विवाह एक ऐसी विचित्र बात है, कि जिस घर को कभी देखा नहीं वही घर अपना हो जाता है| माता-पिता के जिस घर में जन्म हुआ है, जहॉं बचपन बीता और जहॉं के रक्त-मांस से शरीर बना, जहॉं की स्मृतियों में मन बसा है, वह पराया हो जाता है| एक दिन जो पराये और अनजान थे, वे अपने हो जाते हैं| जो सदा के परिचित थे वे छूटकर दूर पड़ जाते हैं|

जब लड़कियॉं सर्व प्रथम ससुराल में बिदा होती हैं, तब वे भय से भरी आशंका से सहमी चित्तवृत्ति में डॉंवाडोल अनिश्चित भविष्य की झिलमिल अभिलाषाओं मे झूलती हुई रोती हैं| बेटी ! अनादिकाल से यहॉं होता आया है| मैं भी एक दिन बहू बनकर इस घर में आई थी| आज वही पराया अनजान घर मुझे अपना ज्ञात होता है| इसमें घबराने की कोई बात नहीं है| तू धीरज, स्नेह, प्रयत्न, परिश्रम और सेवा से एक अपरिचित घर को भी स्वर्ग बना सकती है|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
Did you like it? Share the knowledge:

Advertisement

No comments yet.

Leave a comment

Leave a Reply

Connect with Facebook

OR