श्रावक की क्रिया, श्रावक के प्रत्येक अनुष्ठान, श्रावक का वेश, श्रावक की भाषा, श्रावक के आचार, दुनिया के साथ श्रावक का व्यवहार इत्यादि ऐसे होने चाहिए कि जिसे देखकर दूसरों को उस श्रावक पर और उसके द्वारा जैन धर्म प्रति अहोभाव हो जाए| नौकर को भी कौटुंबिक पुरुष समझना चाहिए और उसे भी सभी आराधना में जोडना चाहिए और धर्म करने के लिए अनुकूलता कर देनी चाहिए| इसतरह अजैन को जैन बनाएँ और जैनको यथार्थ जैन बनाएँ| मांसाहारी को मांस का त्याग कराएँ| उसके लिए यदि धन व्यय करना पडे तो भी उसमें अधिक लाभ है| उससे भवांतर में परमात्मा के शासन की प्राप्ति सुलभ होती है|
महोपाध्याय यशोविजयजी महाराज जैसे महात्मा श्रुतज्ञानसे, नंदिषेण जैसे वचनशक्तिसे, भद्रबाहु स्वामी जैसे निमित्तज्ञानसे, मल्लवादी सूरि जैसे वादविजेता बनकर, चंपाश्राविका जैसे तप के माध्यमसे, वज्रस्वामी विद्या-लब्धि- मंत्र द्वारा, और सिद्धसेन दिवाकर सूरि काव्यशक्ति से तीर्थप्रभावक बनें| जगडुशा जैसे अनुकंपा से तीर्थ प्रभावक बनें| उदारता-सहिष्णुता -कोमलता से जो व्यक्ति सारी दुनिया का हो जाता है, सारी दुनिया उसकी दिवानी बन जाती है| इसलिए ही श्रावक बने हुए प्रदेशी राजाको केशी गणधरने श्रावक बनने से पहले शुरु किये हुए लोकप्रिय कार्यों को जारी रखने का सूचन किया था|
अपने घरमें भी शांतिसे, स्वस्थतासे, धीरजसे और उचित उदारता से बरतने से परिवार के सभ्यो में धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़ती है| यह भी एक तरह से तीर्थ प्रभावना ही है|
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