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श्रुतज्ञान की भक्ति – साल का आठवा कर्तव्य

श्रुतज्ञान की भक्ति   साल का आठवा कर्तव्य
सिर्फ क्रियासे हम देशआराधक बन सकते हैं, उस में यदि ज्ञान सम्मिलित हो जाए तब हम सर्वआराधक बन सकते हैं| ज्ञानरहित और ज्ञान सहित की क्रिया में जुगनूं और सूर्य का अंतर है| कर्मनिर्जरा के बारे में अज्ञानीके पूर्व करोड़ वर्ष की साधनासे ज्ञानी की श्वासोश्वास जितने समय में की हुई साधना बढ़ जाती है| अज्ञानी तामली तापसने ६० हजार साल तक छट्ठके पारणे छट्ठ किये थे और इक्कीस बार धोये हुए भात से ही पारणा करते थे| ऐसे कठिन तपसे भी सम्यग्ज्ञानीकी-सम्यक्त्वीकी नवकारशी बढ़ जाती है| क्रिया की विधि-अविधि, करने में लाभ-न करने में नुकसान इत्यादि का बोध श्रुतज्ञानसे ही होता है| बचाने वाली रस्सी अंधेरेमें सॉंप लगती है और मारने वाला सॉंप रस्सी लगता है| अज्ञानअवस्था में तारनेवाला धर्म त्रास देनेवाला लगता है और मारनेवाला पाप मजेदार लगता है| इसलिए ही तो ज्ञानीओं की दृष्टिमें अज्ञानीओं की हर चेष्टा हास्यास्पद साबित होती है|

अज्ञानदशा की अवस्था ही ऐसी है| श्री दशवैकालिक सूत्रमें प्रथम ज्ञान और बादमें क्रिया का निर्देश किया गया है| देह, मन, वचन, धन, परिवार, पुद्गल और कर्मसे आत्माको भिन्न स्वरूप मानने वाले ज्ञानी ही समता, समाधि, स्वस्थता और प्रसन्नता को प्राप्त कर सकते हैं| भय, दंभ और कपटसे दूर रह सकते हैं| प्रत्येक क्रिया को भाव जोडकर जीवंत बना सकते हैं|

प्रत्येक जैन को कमसे कम गुरुवंदन, चैत्यवंदन, सामायिक लेने-पारने की विधि तो ज्ञात होनी ही चाहिए| नये सूत्र कंठस्थ करने हेतु हररोज १५ मिनिट रटने के लिये निकालनी ही चाहिए| उसी तरह जिनवाणी का श्रवण भी अवश्यमेव करना ही चाहिए|

महामंत्रीपद पर विराजित पेथड़शा को दूसरा कोई समय नही मिलने पर, हाथी के हौदे पर बैठकर राजदरबार आते-जाते रास्तेमें ही सूत्र मुखपाठ करते थे| इस तरह उन्होंने उपदेशमाला तक सूत्रोंको कंठस्थ कर लिया था| उन्हों ने संग्राम सोनी की तरह भगवतीसूत्र सुनते समय गोयम! गोयम! सुनते ही भगवतीसूत्र का सोनामुहर से पूजन करके श्रुतभक्ति की थी|

श्रुतज्ञान की भक्ति   साल का आठवा कर्तव्य
पूर्वाचार्योंके श्रुतसर्जन से और उसमें श्रावकों के सद्व्यय से ही आज भी श्री जैनसंघ को समृद्ध श्रुतमीरास मिला है| सूरिपुरंदर श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज रात्रिमें भी श्रुतसर्जन कर सकें इसलिए लल्लिग श्रावकने उपाश्रयमें बहुत प्रकाश करनेवाला मूल्यवान रत्न रखा था| कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य की श्रुतसर्जन प्रवृत्ति रुक जाती देखकर ताड़पत्र प्राप्त करनेके लिए श्री कुमारपाल महाराजाने प्रचुर धनव्यय किया और साथ साथ चौविहार अट्ठम करके शासनदेवी की सहायता भी प्राप्त की थी| महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज को काशीमें अभ्यास कराने में जो खर्च हुआ था, उसका पूरा लाभ श्रुतभक्त श्री धनजी सुराने लिया था|

न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति,
न मूकतां नैव जडस्वभावम्
नैवान्धतां बुद्धिविहीनतां च,
ये लेखयन्त्यागमपुस्तकानि॥
(जो मनुष्य आगम पुस्तक लिखाते हैं (वर्त्तमानमें छपवाते हैं) वे दुर्गति, गुंगापन, जडता, अंधापन और बुद्धिहीनता को कभी भी प्राप्त नहीं करते|)

श्रुतज्ञान की आशातना से बचने के लिए
१) कागजमें नहीं खाना चाहिए| कागज़ पर बैठना नहीं चाहिए| (वर्तमानपत्र पर भी)| कागज़ को जलाना नहीं चाहिए| (पटाखे नहीं फोड़ना)| विष्ठा आदि अशुचि के कार्यमें कागज़ का उपयोग नहीं करना चाहिए| अक्षरलिखित वस्तुको लेकर बाथरुम-संडासमें नहीं जाना चाहिए|
२) झूठे मुँहसे बोलना नहीं|
३) अक्षर वाली टेब्लेट, चोकलेट इत्यादि को खाना नहीं| यदि खाना पड़े तो पहले पानीसे अक्षर को दूर कर लेना चाहिए|
४) अक्षरवाले बूट-चप्पल नहीं पहनने चाहिए| यदि पहनना पड़े तो पहनने से पहले अक्षर मिटाना चाहिए| रास्ते पर लिखे हुए अक्षरों पर पैर नहीं रखना चाहिए|
५) कागज, नोट, पेन, पुस्तकादि ज्ञानके साधन को फेंकना नहीं चाहिए, पैर नहीं लगाना चाहिए और उसे शस्त्र बनाकर मारने के उपयोगमें नहीं लेना चाहिए|
६) एक अक्षर भी अधिक लिखना नहीं और मिटाना नहीं|
७) अशुद्ध सूत्र नहीं बोलना चाहिए|
८) सूत्र के गलत अर्थ नहीं करना चाहिए| मनमाना-यथेच्छ तर्क लगाकर निकाले अर्थ अन्यको नहीं कहना चाहिए|
९) ज्ञानके साधन-पुस्तक इत्यादि निकम्मे-बिनजरुरी-व्यर्थ हैं ऐसा कभी भी मानना नहीं और अन्यको कहना भी नहीं|
१०) ज्ञानी गुरुभगवंतो की, पाठशालाके अध्यापकों की, पढते हुए छात्रोंकी अवहेलना, तिरस्कार, मानभंग नहीं करना चाहिए| उनकी बात को काटना या खंडन करना नहीं चाहिए|
११) पुस्तक-मेगेझीन इत्यादि जहॉं-तहॉं फेंकना, देरासरमें छोड देना, या पस्तीमें बेच देना इत्यादि अकार्य नहीं करना चाहिए| परन्तु गीतार्थ गुरुभगवंतों की सलाह लेकर उचित व्यवस्था करनी चाहिए|
१२) अन्य शिक्षकोका भी अपमान आदि नहीं करना चाहिए| …..वगैरह…..वगैरह…..

श्रुतज्ञान की भक्ति   साल का आठवा कर्तव्य
श्रुतज्ञान की आराधना करने के लिए
१) ज्ञानपंचमी की विधिपूर्ण आराधना करनी चाहिए|
२) प्रतिदिन सूत्राभ्यास करना चाहिये|
३) धार्मिक सद्वांचन, अर्थ इत्यादि का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए|
४) प्रवचन सुनना चाहिए|
५) ज्ञानी गुरुभगवंत एवं पाठशाला के अध्यापक वगैरह का बहुमान करके उनकी भक्ति करनी चाहिए| महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजने स्वयंको पढ़ानेवाले काशीके पंडित का आदरसे खड़ा होकर बहुमान किया था और श्रावकों के द्वारा बड़ी रकम पहिरावनी के रूपमें दिलवाई थी|
६) पाठशाला के बालकोंको विविध प्रभावना इत्यादि द्वारा पढ़ाई करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए|
७) अपने बच्चों को भी ज्ञानाभ्यास के लिए प्रेरित करना चाहिए, स्वयं ही पढ़ाई के लिये बैठकर आदर्श देना चाहिए और कुछ सूत्र के अभ्यास पर बड़ा इनाम देना चाहिए| पाठशाला के समय पर टी.वी. बंद रखना चाहिए|
८) श्रुतलेखन-प्रकाशनमें उचित लाभ लेना चाहिए|
९) सूत्र शुद्ध बोलना चाहिए|
१०) ज्ञानभंडार बनाने चाहिए, उनकी देखभाल करनी चाहिए, साधु-साध्वीजी को विशेष उपयोगी हो ऐसे प्रयत्न करने चाहिए| श्रावकवर्ग में पढ़ने की रुचि पैदा हो इस तरह के प्रयत्न करने चाहिए|…..वगैरह…..वगैरह…..

श्रुतज्ञान की आराधना हमारे जीवनमें नहिवत् है और आशातना का प्रमाण बढ़ता जा रहा है| जिससे प्रकृष्ट ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है| फिर भविष्यमें क्या होगा ? ज्ञान नहीं बढ़ पायेगा, कुछ भी नहीं आयेगा और पढ़ा हुआ सब भूल जायेंगे| वरदत्त, गुणमंजरी और माषतुष मुनि इत्यादिके पूर्वभव को देखते ही इस बातका स्पष्ट ख्याल आता है कि ज्ञानकी आशातना करनेवाले पागल, मंदमति या मूर्ख बनते हैं जो समझाने पर भी नहीं समझ पाते|

शिक्षक ने वर्गके प्रथम दिन ही कहा, ‘‘याद रखो कि माय हेड यानी कि मेरा सिर’’ एक लड़का घर जाकर रटने लगा कि माय हेड यानी कि शिक्षकका सिर…| तब पिताजीने भूल सुधारने कहा, ‘‘शिक्षकका नहीं… मेरा सिर’’ | पिताजी तो अन्य कार्यमें व्यस्त हो गये और लड़का फिर से रटने लगा कि ‘‘माय हेड यानी कि पिताजी का सिर|’’ दूसरे दिन स्कूलमें इन्स्पेक्शन के लिए आये हुए इन्स्पेक्टर ने उसी लड़के को पूछा कि ‘‘माय हेड यानी क्या ?’’ लड़केने कहा, ‘‘शालामें शिक्षक का सिर और घरमें पिताजी का सिर|’’ इन्स्पेक्टरने कहा कि, ‘‘अरे ! ऐसा नहीं… माय हेड यानी कि मेरा सिर…’’| लड़के का दिमाग चकराया, ‘‘मैं कितने सिर याद रखुं ?’’ उसने प्रिन्सीपल को फरियाद की| प्रिन्सीपलने कहा, ‘‘दोस्त ! तुझे अन्य किसीके सिर को याद रखना नहीं हैं| तू सिर्फ इतना ही याद रख कि, ‘‘माय हेड यानी कि मेरा सिर’’| लड़का तो खुश होते हुए क्लासमें गया| तब शिक्षकने धमकाते हुए कहा, ‘‘मैंने कल सिखाया था न ? फिर क्यों नहीं पक्का किया ? बोल, माय हेड यानी क्या?’’ तब लड़केने कहा, ‘‘माय हेड यानी प्रिन्सीपल का सिर’’| जवाब सुनके शिक्षक तो भौंचक्के हो गये|

बात यह ही है कि ज्ञान की आशातना करनेवाले को कितना भी समझाओ पर वह समझ ही नहीं पाता| बुद्धु, मंदमति, पागल, बौखल-बौड़म, महत्वपूर्ण अवसर पर ही महत्वपूर्ण बातों को भूल जाना, तोतला-हकला होना इत्यादि के पीछे ऐसी आशातना का ही प्रभाव है| इसलिए ज्ञानकी आशातना से बचते रहिये, ज्ञानकी आराधना को बढ़ाते जाईए|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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