आज कल करोड़ो रुपये और कई सालों का परिश्रम लगाने के बाद जिनालय तैयार होता है| जिनालय का पाषाण लाने के लिए बार बार जयपुर इत्यादि स्थानों पर दोड़-धूप चलती हैं| किन्तु बादमें जिस भगवान को बिराजित करना है, और जिस भगवान की प्रतिष्ठा मात्रसे इमारत ‘‘देरासर’’ या ‘‘जिनालय’’ के रूपमें पहचाना जाता है, उस भगवान को लोग एक झटके में कोई भी कारीगर से किसी भी तरह बनाये हुए खरीद लेते हैं, यह अनुचित है| शास्त्रमें बताई हुई रीति के अनुसार ही परमात्मा की प्रतिमा भरवानी चाहिए और सचमुच इस रीतिसे भरवाये हुए भगवान अद्भुत और चित्ताकर्षक होते हैं|
गर्भगृह में विराजित परमात्मा की पूजा तो रोज होती ही है, किन्तु सालमें एकबार……
परमात्मा जहॉं बिराजमान हैं और जिसमें रहकर भावपूर्वक प्रभु की अँगपूजा होती है उस गर्भगृह की…..
उस गर्भगृहसे संलग्न रंगमंडप, जहॉं अग्रपूजा-भावपूजा के माध्यमसे उत्कृष्ट भावनाएँ प्रकट होती हैं उस रंगमंडप की…..
वह शिखर, जो सभी धर्मो में जैन धर्म, सभी गुरुओमें जैन साधु और सभी देवोमें अरिहंत देव ही शिखर पर बिराजित हैं ऐसी भावना को अंतःकरण में प्रकट करनेमें निमित्त बनता है, उस शिखरकी……
वह सीढ़ी, जो जिनालय तक पहुँचाती है और आते जाते संघसभ्यों की चरणरज को लेकर पवित्र बनी हुई है, उस सीढ़ी की…..
वह परिसर जिस में प्रवेश करते ही भविकों के मनोभाव प्रभु-दर्शन के लिए उछलने लगते हैं, उस परिसर की…..
वह गली, जो संसार के राग-द्वेष की ओर ले जाने वाले माहौल से दूर, वैराग्य, प्रशम और करुणाभावकी ओर ले जाने वाले जिनालय तक पहुँचाती है, उस गलीकी….
अरे उस ध्वजदंड की, धजाकी… जो दूर दूर दूर तक लोगो को… यहॉं जिनालय है, प्रभु है, संसारअगन से थके हुए लोगोंको शमरस सागर में स्नान करानेवाले परमात्मा हैं ऐसा बोध देकर दूरसे ही पवित्रता को जगाती है| गर्भगृह में बिराजित प्रभुकी पवित्रता को हवामें फैला कर मानो चारो ओर प्रसारित करता है, मोहराजा पर जिनराजने विजय प्राप्त किया है ऐसा बोध कराता है, अनेकांत-स्याद्वादमय जिनधर्म की यह धजा एकांतवाद के सामने विजय पाकर अडग खड़ी है, ऐसा सूचित करती है और संसारसागर में डूबते हुए जीवोंको आश्वासन देती है कि यहॉं भवजलधितारक जहाज हैं… ऐसी धजा की…
इस तरह ही जिनालय के एक एक स्थान की, एक एक स्तंभ की… भव्य शणगार द्वारा जो पूजा की जाती है वह महापूजा है| यह महापूजा हजारो भव्यजीवों को प्रभुदर्शन के लिए आकर्षणरूप बनती है| इससे जैनेतरोंका भी वीतराग परमात्मा और उनसे प्ररूपित धर्म के प्रति बहुमानभाव प्रकट होता है और देवेन्द्र के दरबार से भी अधिक भव्य ठाठमय धर्मचकवर्ती के दरबार में बिराजित प्रभुका मुख देखते ही अहेसास होता है कि जब अन्य लोग अपने ठाठ को देखकर हर्षित होते हैं, अभिमान करते हैं, तब ऐसे ठाठके बीच में भी ये परमात्मा निर्लेप हैं – वीतरागभाव में हैं… समृद्धिमें गर्वित नहीं होना चाहिए ऐसा बोध तब होता है| इस तरह जिनेश्वर को सत्प्रणामादिसे योगबीजको प्राप्त करके भव्यजीव यथाशीघ्र सम्यक्त्वादि को पाकर धर्ममार्गमें आगे बढ़ते हैं|
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