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देवद्रव्य की वृद्धि – साल का पाँचवा कर्तव्य

देवद्रव्य की वृद्धि   साल का पाँचवा कर्तव्य
पूर्वके कालमें जिनालयों को खंडित करने के प्रसंग अधिक बनते थे| मुसलमान बादशाह-सुबा इत्यादिने बहुत जिनालयों को खंडित किया| दूसरी तरफ परदेशिओं के राज्यमें जैन व्यापारिओं को असुविधा के कारण आमदानी का प्रश्न भी खडा हुआ| जिनालयों के आधार पर टीकी हुई जैन परंपरा का नाश हो जाए ऐसी परिस्थिति का भी निर्माण होने लगा| अतः उस समय देवद्रव्य की विशेष आवश्यकता खडी हुई| स्वप्न की बोली इत्यादिसे संचित हुई देवद्रव्य की राशिसे जिनालयों के जिर्णोद्धारादि कार्य शुरु रहने से ही आज हमें भव्य जिनालयों का मीरास मिला है|

योग्य उपायों से देवद्रव्यकी वृद्धि, रक्षा और योग्यस्थान पर सदुपयोग करने से उत्कृष्ट लाभ स्वरूप तीर्थंकरपद की भी प्राप्ति होती है, तो शक्ति होने पर भी यदि हानि, उपेक्षा और योग्यस्थान पर विनियोग न करें तो उत्कृष्ट नुकसान स्वरूप अनंत संसार भ्रमण बढ़ता है और हर एक भवमें दौर्भाग्य की अनुभूति होती है|

संकाश श्रावकने अत्यंत दूर पूर्व के भवमें किया हुआ देवद्रव्य का भक्षण उसे दुर्गति आदि अनेक स्वरूपसे परेशान करनेवाला बना| अंतिम भवमें भी कर्मसत्ता ने माता-पिताके साथ वियोग करवा दिया, जहॉं जाये वहॉं अकाल और जहॉं नौकरी करे उस सेठ का दिवाला निकले ऐसे दौर्भाग्य का अनुभव किया| केवलज्ञानी से उसके कारणरूप देवद्रव्य-भक्षण को जानकर उन्हों ने उसी भवमें अपने लिए अल्प पैसे रखकर बची हुई पूरी कमाई देवद्रव्य की वृद्धि के लिए अर्पण कर देनेका संकल्प कर लिया और तब से ही उसका पुण्योदय बढ़ा|

वर्तमानमें यदि आपको बार-बार निष्फलता मिलती हो, जहॉं जाओ वहॉं अपमान इत्यादि रूप दौर्भाग्य की अनुभूति होती हो तो शक्य है कि पूर्वभव में देवद्रव्य का भक्षण किया होगा|

संघपति होते हुए भी शत्रुंजय पर संघमाल के समय पर कुमारपाल राजाने देवद्रव्य-वृद्धि के आशयसे बोली बुलवाई और सचमुच जगड़ श्रावकने सवा करोड़ की बोली लेकर संघमाला पहनी|

जिस तरह पेटमें अन्न का जमाव होने से सभी रोग आते हैं, उसी तरह पेटीमें और पटारेमें धनका जमाव होने से सभी दोष आते हैं| जो सन्मार्ग पर धन व्यय करता है, वह लक्ष्मीनंदन है, सच्चा मालिक है| जो धनके पीछे-पीछे दौड़ता है, वह तो गुलाम है| धनसंग्रह करने में एक सेठकी तिजोरी में ही मृत्यु हो गई|

देवद्रव्य की वृद्धि   साल का पाँचवा कर्तव्य
जिस तरह समुद्रमें गिरा हुआ पानी का बुंद अक्षय हो जाता है, उसी तरह प्रभुके खाते में जमा किया हुआ धन व्यय करे तो वह धन भी अक्षय हो जाता है| जो स्वयं के लिए अत्यधिक उदार होते है वे धर्ममें-परमार्थ में संकीर्ण होते हैं, जो स्वयं के लिए संकुचित हैं, वे ही परमार्थ करने में उदार बन सकते हैं| स्टेटस, फैशन व स्थान-पद के लिए ही जिसकी संपत्ति व्यय होती है, उसकी संपत्ति भगवान के लिए कहॉंसे व्यय होगी ? और जिसको ऐसी संवेदना होती है कि ‘‘पंचम दुषम कालमें तो जिनागम, जिनबिंब… दो ही तैरने के साधन हैं’’ वह फिर जिनबिंब के लिए न्योछावर क्यों नहीं करेगा ?

स्वप्नमें भिखारी के पास भगवानने हाथ फैलाया| भिक्षुकने भगवानको चावल का आधा दाना दिया| सुबहमें उठकर जब भिखारीने अपनी पुटकी देखी तो चावल के आधे दाने जितना ही सुवर्ण| बादमें वह रोने लगा| यदि आप धन की रक्षा ही करते रहेंगे, तो दूसरें उसका उपभोग करेंगे और उसका पाप भी आपको लग जायेगा| भगवानको अर्पण करेंगे तो कभी भी रोने का अवसर नहीं आयेगा|

धनलोभी सेठ थोडा सा घी रगडकर रोटी खाते थे और उनका रसोईया घीमें रोटी डूबोकर खाता था ! एकबार गलतीसे सेठकी थालीमें घी में डुबोई हुई रोटी आ गई| सेठ चिल्लाये, ‘‘अरे ! इतना घी लगानेकी क्या जरूरत है ? व्यर्थ बिगाड़ होता है|’’ रसोईये ने मुंह गंभीर बनाकर कहा, ‘‘गलतीसे मेरी रोटी आपकी थालीमें आ गई !’’ जो व्यक्ति देवद्रव्यआदि सुकृत द्वारा अपने लिए संपत्ति का सद्व्यय नहीं करेगा, तो उसकी संपत्ति उसके सिवा बाकी सब उडायेंगे !

भारत का रुपया अमरिका में नहीं चलता| हॉं, यदि रिझर्व बेंकमें जाकर डोलर में ट्रान्सफर किया जाय, तो काम बनेगा| यहॉं के रुपये परलोक में काम नहीं आयेंगे| हॉं, यदि परमात्मतुल्य रत्नपात्र में देवद्रव्य की वृद्धि आदि माध्यमसे खाली करके पुण्यमें यदि ट्रान्सफर किया जाए तो परलोकमें बहुत ही काम आयेंगे|

जो व्यक्ति सुकृत के मार्ग से संपत्ति का निवेश करता है उसको जिनशासनरूपी बैंक द्वारा अनेक सुविधा मिलती है| जैसे की आजकल क्रेडीटकार्ड का चलन है| आपके पास बेंकबेलेंस हैं- आपको क्रेडीटकार्ड मिला| अब आप उसके जोर पर कोई भी दुकानमेंसे आपके क्रेडीटकार्ड की मर्यादा तक सभी इच्छित वस्तु खरीद सकते हैं| दान करनेवाले को भवोभव पर्यन्त चलनेवाला क्रेडीटकार्ड मिलता है| पुण्य की क्रेडीट पर वह इच्छित-इच्छा बगैर भी कई वस्तु-अनुकूलता की प्राप्ति कर सकता है|

एक और ट्रावेलर्स चेकका भी सिस्टम है|

देवद्रव्य की वृद्धि   साल का पाँचवा कर्तव्य
आपने आपके शहरमें बेंकमें रकम जमा करवाई| बदलेंमे आपको ट्रावेलर्स चेक मिले| बादमें आप मुसाफिरी पर निकले| जो-जो गॉंवमें आपकी बेंककी शाखा होगी, वहॉं आपको इस चेक पर रकम मिलेगी| जिनशासनमें भी ठीक ऐसी ही व्यवस्था है| आपने जो सुकृत किया उसमें जितना उछलता भावोल्लास जोडा और बादमें जितनी बार आपने जितनी तीव्रतासे सुकृत की अनुमोदना की उसके आधार पर आपको पुण्य का ट्रावेलर्स चेक मिलते हैं, बादमें आप दूसरे भवोंमें यानी कि चौदह राजलोक में कहीं भी जानेरूप मुसाफिरी करे, तब आपको साधन, सामग्री या साधना के लिए जितने पुण्य की आवश्यकता हो, वह आपको मिलता रहे, ऐसी व्यवस्था है| ‘भरो यहां पर, मिले सब जगह पर’ !

जिनशासन टोप मोस्ट ग्रेड प्राप्त कंपनी हैं| उसके तीनों अंग प्रबल हैं| १) लीक्वीडीटी प्रबल है यानी कि आप चाहो तब कंपनीके शेयर भुना सकते हैं| यानी कि चाहो तब आपको पुण्य-समृद्धि प्राप्त हो सकती है| २) डीवीडंड तगडा देता है| यानी कि एकबार सुकृत करने के बाद सतत ही उसका आनंद मिलता है| ३) आकर्षक बोनस देती है| यानी कि इस भवमें आप जितना भी सुकृत करेंगे… अगले भवमें आपको कमसे कम दस-गुना फल मिलेगा| कैसी सुंदर व्यवस्था ! निवेश एकबार और प्राप्ति बारबार…. भवोभव !

अब आप ही कहो कि इस सुकृतमें जितना कुछ व्यय करे वह अत्यंत सलामत निवेश ही कहलायेगा या वापस नहीं मिलने वाला खर्च कहलायेगा? और यदि आप खर्पींशीींाशपीं मानों तो वह बढ़े उसमें आनंद होगा या उसमें कटौती हो वह अच्छा लगे ?

जो सुपात्रमें बोते हैं, वह कई गुना प्राप्त करते हैं, और जो मोजमजा में उडाता है, उसे बादमें भूखा रहनेका प्रसंग आता है| जो मंदिरमें सद्व्यय करते रहता है, उसे कभी मंदी की परेशानी आती नहीं| एक भाई हररोज अच्छी बोली बोलकर परमात्माके प्रथम अभिषेक का लाभ लेते थे| किसीने इसका कारण पूछा, तब भाईने जवाब दिया कि यदि यहॉंसे मृत्यु पाकर देवलोकमें जाना होगा तो ऐसे स्थान की प्राप्ति हो कि जिससे हमेशा प्रथम प्रभुअभिषेक का लाभ मिलता रहे ! अन्यथा देवांगनाओंमें उलझते रहेंगे|

एक भाईने अपने हिस्से में मिले हुए ८७ हजार रुपये में से ८१ हजार रु. प्रभुकी प्रतिष्ठाका लाभ लेनेके लिए सद्व्यय कर लिया| गिनती ६-७ हजार की थी, मगर बोली शुरु हुई तब बोली और भाव दोनों बढ़ते रहे| भावको रोका नहीं और ८१ हजार भरपाई करके लाभ ले लिया| बादमें व्यापार शुरु किया | कैसी भी मंदी हो, उस भाई को मंदी आडे नहीं आती| उन्होंने खुद स्वीकार किया कि परमात्म प्रतिष्ठा की बोली के समय मैंने अपने भावमें मंदी नहीं रखी इसलिए ही आज मुझे कहीँ भी मंदी की असर नहीं होती|

देवद्रव्य की वृद्धि   साल का पाँचवा कर्तव्य
(देवद्रव्यके विषय में ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण बाते :-

१) प्रथम साधारण खातेको तरबतर करना चाहिए| क्योंकि साधारण खाता तराबोर होगा तो खर्च के लिए देवद्रव्यभक्षण का दोष नहीं लगेगा| जो साधारण खातेमें लाभ लेता है, वह सभी शुभकार्योेमें लाभ की प्राप्ति तो करता ही है और उसे देवद्रव्यके संभवित भक्षण के महादोष को टालनेका भारी लाभ मिलता है|

२) देवद्रव्यकी बोली बोलते समय स्वजन-मित्र को सस्ते में मिल जाए ऐसी कोशिश करने के बदले देवद्रव्यकी वृद्धि का लाभ देखना चाहिए| छोटे भाईको सस्ते में चढ़ावा मिलता है ऐसा देखकर बड़े भाईने उसके सामने बोली बोलना शुरु किया| छोटे भाई को बडी बोलीमें लाभ मिला| तब बड़े भाईने सामने चढ़ावा बोलने का कारण बताया कि यदि तुझे हर वक्त की अपेक्षा सस्ते में लाभ मिलता, तो देवद्रव्यमें उतनी हानि होती और उसे देखते रहने में उपेक्षा का बड़ा दंड मुझे भी लगता था|

एक तेरापंथी गॉंव में प्रतिष्ठा की बोली बोलनेमें पति-पत्नी आमने सामने| पति हजार मन आगे बढ़ता, तो पत्नी एक मन…| अंतमें पत्नी को ही चढ़ावा मिला| पतिके सामने बोलनेका कारण देते हुए पत्नीने कहा कि, जो बोले उसको लाभ…. मेरे पैसेसे मैं बोली तो मुझे लाभ !

३) (अ) देवद्रव्यकी बोली की रकम पहले जमा कराके बादमें ही लिये हुए चढ़ावेका लाभ लेना चाहिए| गिरनार को श्वेतांबर तीर्थ के रूपमें सुरक्षित रखने के लिए पेथड़शाह मंत्रीने ५६ घडी सुवर्ण देवद्रव्यमें जमा करवाकर लाभ लिया था| उस वक्त जब तक जमा नहीं होगा तब तक चौविहार उपवास का संकल्प कर लिया था| उसमें पेथड़शाह मंत्रीने चौविहार अट्ठम कर लिया था| १) मनके भाव २) आर्थिक संयोग ३) स्मरणशक्ति और ४) आयुष्य….. इन चारों पर भरोसा रखने जैसा नहीं है| बादमें इन चारोमेंसे कोई भी कारणसे रकम भरपाई न कर सके तो देवद्रव्यभक्षण का भयंकर दोष अनंत संसारजनक बन सकता है|

(ब) जिस क्षण देवद्रव्यकी बोली बोलते हैं, उस क्षणसे ही उतनी रकम देवद्रव्यको समर्पित हो जाती है| हम इतने देवद्रव्यके कर्जदार हो जाते हैं | बादमें वह रकम यदि घर या व्यापारमें रही तो ब्याज-नफा इत्यादि संबंधी दोष से दुष्ट होनेकी पूर्ण संभावना है| फिर अपनी अनुकूलतानुसार मूल रकम भरपाई करते हुए भी हमें ब्याज इत्यादि का दोष लग सकता है|

(क) यदि संघमें हप्तेसे रकम भरपाई करने का निर्णय घोषित किया हो, तो वहॉं हप्तेसे भरपाई करने में दोष नही होने पर भी यदि शक्ति हो तो हप्ते का लाभ उठाये बिना पहले ही पूरी रकम भरपाई कर देने में ही सयानापन है| देवद्रव्य के कर्जमें से यथाशीघ्र बाहर आ जानेसे ही देवद्रव्य की बोली बोलने से होने वाले भौतिक और आध्यात्मिक लाभ की शीघ्र प्राप्ति कर सकते हैं और सौभाग्य, यश इत्यादि के चमत्कार की अनुभूति कर सकते हैं| संघको वसूली पर निकलना पडे या तो बोर्ड पर नाम लिखना पड़े वह अति लज्जास्पद बात है| लाखों रू. की बोली बोलने के बाद पहले रकम भरपाई करके ही चढ़ावेका लाभ लेनेवाले अमुक महानुभाव आज भी दिखाई देते हैं|

(४) ट्रस्टीओंने देवद्रव्यकी जमा रकममें से अपने जिनालयके लिए जरुरी रकम रखकर अन्य रकम यथाशीघ्र गीतार्थ गुरुभगवंतके मार्गदर्शनानुसार उचित स्थान पर बॉंट देनी चाहिये| जिससे
१) बेंक में फीक्स डीपोझीट बढ़ती रहे और बादमें उस राशिमेंसे बेंक आरंभ-समारंभ के कार्यों के लिये किसीको लोन दे तो उसमें निमित्त बननेके पापसे हम बच सकते हैं
२) फंड बढ़ने से फ्रन्ट बढ़ते हैं ! प्रशासन करनेकी इच्छावाले अविवेकी लोग ट्रस्टी बनने का प्रयत्न करें, उसमें संघर्ष बढ़ता है और नया तड़ खड़ा होता है| यदि फंड नहीं रखने का नियम होगा तो ऐसी विषमस्थितिसे बच सकते हैं|
३) बेंक में बड़ी रकम जमा होनेसे संभवित है कि सरकार की नजर लगें और उसे सरकारी खाते में ले जाने के लिये नये कानून बने|
४) देवद्रव्यकी रकम यदि बची रहे तो बुद्धिजीवी जैसे लोगों को शाला-होस्पिटल इत्यादि स्थानोमें रकम व्यय करनेकी बुद्धि होती है, उसका प्रचार होता है और व्यय न करने पर टीका भी होती है|
५) ट्रस्टीओंको अपनी आर्थिक स्थिति कमजोर पड़ने इत्यादि परिस्थितियोंमे उस डिपोजिट के सामने व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु बेंक-लोन लेने की इत्यादि भयंकर विनाशकारी दुर्बुद्धि होने की संभावना है|
६) जैसे श्रावकोंके लिए देवद्रव्य में पैसा व्यय करना वह कल्पवृक्ष समान बनता है, और दानमार्ग पर दी हुई लक्ष्मी उससे भी ज्यादा लक्ष्मी को खींचके लाती है| वैसे ट्रस्टीओंको भी समझना चाहिए| अपने कब्जेमें रखी हुई संघकी देवद्रव्यकी रकम का सद्व्यय करते रहने से जिनशासन के प्रभाव से देवद्रव्यादिमें अधिक आवक होती ही रहती है|
७) जिन जिन जिनालयों के लिए लक्ष्मी का सद्व्यय होता है, वहॉं होनेवाली भक्ति इत्यादिका पूरा लाभ इस संघको मिलता है|
८) देवद्रव्य की रकममें से गॉंव आदिके मंदिर के जीर्णोद्धार कराने से सुंदर बने जिनालयों से जिनशासनकी शोभा बढ़ती है, तीर्थरक्षा होती है और वहॉं बिराजित प्रभुकी भक्ति होती है|
९) देवद्रव्यमें व्यय की हुई लक्ष्मी अक्षय होती है| यह बात प्रेक्टीकल बनती है| उदाहरण के तौर पर आपके संघकी लक्ष्मीसे एक जिनालयका जीर्णोद्धारका कार्य पूरा हुआ| वहॉं प्रतिष्ठा इत्यादि द्वारा जो आवक हुई हो, उस आवक को जिनालय के ट्रस्टी अन्य जिनालयमें सद्व्यय करें| वहॉं भी आवक हो और वह रकम फिरसे अन्य कोई जिनालयके जीर्णोद्धार में सद्व्यय की जाए| बस ऐसे ही एक भव्य चेनल चालु होने से उन सभी देरासरों में सालों तक परमात्मभक्ति का लाभ मिलने से लक्ष्मी अक्षय बनती है| चढ़ावा बोलनेवाले को भी इससे अक्षय लक्ष्मीका लाभ मिलता है|

५) अयोग्य रीति से देवद्रव्य की आवक को बढ़ानी नहीं चाहिए| दुकान और व्यापारी प्रतिष्ठानों में कम ब्याज से या उचित जामीन बगैर यह रकम अनामत रखी जाए वह भी अनिष्टका एक कारण बनता है और साथ साथ देवद्रव्यभक्षणादि दोष तो लगते ही हैं | इसलिए ऐसी प्रवृत्तियॉं नहीं करनी चाहिए| देवद्रव्य के सद्व्यय में भी फालतू खर्च, निष्कारण खर्च, उड़ाऊ खर्च नही होना चाहिए| देवद्रव्यकी बची हुई रकम अन्य जैन मंदिर के लिये नहीं देने की अनुचित विचारधारा में उलझे हुए कुछ एक ट्रस्टी लोग बादमें उस रकम का व्यय करने के लिए संघके जिनालय में अनावश्यक तोड़-फोड़ और बिनजरुरी सुधार-फेरबदल कराते रहते हैं|

देवद्रव्य की वृद्धि   साल का पाँचवा कर्तव्य
संघ में अन्य कमज़ोर खाते को तरबतर करने के बाद देवद्रव्यकी की हुई वृद्धि गुणदायक सिद्ध होती है, यह भी खास ध्यान में रखना चाहिए| यदि धन नहीं किन्तु धर्म, पैसा नहीं किन्तु प्रभु, परिवार नहीं किन्तु परमेश्वर, स्वजन नहीं परन्तु संघ, आलोक नहीं किन्तु परलोक, वाह-वाह का मोह नहीं किन्तु वासना का मोक्ष चाहते हो, तो दान के नाम पर बोआई के ऐसे शुभ अवसरों को छोड़ने जैसा नहीं है| उसमें मर्यादा और गिनती को स्थान ही नहीं हैं|

जूते जल्दीसे घिस न जाये इस आशयसे एक कंजूसने अपने पुत्र को दो दो सीढ़ी साथ चढ़ने को कहा| पुत्र पितासे भी सवाई कंजूस बनने गया और चार चार सीढ़ी साथ चढ़ने लगा| चढ़ते चढ़ते पतलून फट गया| जूते को सँभालने में पतलून फट गया ! आप यदि देवद्रव्य जैसे उत्तम स्थान पर सद्व्यय करना छोड देंगे तो शायद आपको अस्पताल का, बीमारी का या ऐसा अन्य आकस्मिक खर्च झेलना पडे|

एक दृष्टान्त है| बहुत दौड़धूप करने पर भी एक भाईकी कुल संपत्ति १६ करोड़ से अधिक बढ़ती ही नही थी| यदि बड़ी आय होती तो कोई निमित्त से बडा व्यय भी होता था| ज्ञानी गुरु महाराज को कारण पूछा, तब गुरुजीने कहा, पूर्वभवमें सुपात्र दान हेतु लड्डु बहोराते समय ‘१६ साधु हैं तो सोलह लड्डु बहोराऊँ’ ऐसा निश्चय किया | इस तरह हिसाब करके काम लिया| धर्म भी हिसाब करनेवाले के साथ हिसाब करके ही व्यवहार करता है और गिनती नहीं रखनेवाले को अनगिनत देता है| बहोराने के प्रभावसे आपको यह संपत्ति मिली है, किन्तु आपने १६ मोदक की मर्यादा रखी इसलिए आपके पास मर्यादित संपत्ति ही रहेगी| यह सुनकर उस भाईको बिचार आया कि, ‘‘यदि कमाई करते हुए भी १६ करोड़ ही रहते हैं तो अब प्रयोग किया जाए दान करनेका….’’ और सचमुच कमाल हो गई| दानधर्म में कितना भी सद्व्यय करते हुए भी सालके अंतमें १६ करोड़ बचते ही थे! बादमें तो वे दानधर्म को बढाते ही गये| इस दृष्टांतसे समझना है कि आपके भाग्यमें जितना है, उसमें कोई विशेष वृद्धि-हानि होना प्रायः संभवित नहीं है| भागदौड़ करने पर भी वृद्धि नहीं होती तो हो सकता है कि देवद्रव्यादिमें सद्व्यय करने से हानि भी न हो|

इसके अलावा जब आप देवद्रव्य में धन अर्पण करते हो तब वास्तवमें ‘‘त्वदीयं तुभ्यं समर्पयामि’’- भगवान ! पूर्वभव में आपकी ही… नहीं कि अन्यकी; भक्ति करने से ही आज इष्ट धन की प्राप्ति हुई है, अर्थात् आपने जो दिया है, वह में आपको वापस समर्पित करता हूँ| यह कृतज्ञता है| आपके करोड़ रू. लोन पर लेने के बाद दिवाला निकालनेवाला २५ टका लौटायें तो भी आपको संतुष्टि नहीं होती, तो प्रभुकी कृपासे ही मिली हुई संपत्तिसे प्रभुके मार्ग पर मुश्कील से दो – पॉंच टका व्यय करने वाले आप कैसे ? और फिर भी बहुत सद्व्यय किया ऐसा मानकर संतुष्ट हो जाते हो तो वह कितना उचित कहा जायेगा ? आपके दिये हुए पॉंच रुपयेसे यदि भिखारी दारु आदिमें खर्च करें, तो यह आपको योग्य नहीं लगता, तो प्रभुके अनुग्रह से प्राप्त संपत्तिमें से फैशन, होटल, व्यसन इत्यादि में आप बेहिसाब खर्च करते हो तो वह कितना उचित है?

आप जबसे देवद्रव्य में रकम जमा करवाते हो तबसे ही भगवान की बेंक में आपका खाता खुल जाता है| त्रिलोकके नाथ की डायरी में अपना नाम होना वह अपना कितना बड़ा गौरव है ! इत्यादि विचार करके देवद्रव्य की वृद्धिमें पुरुषार्थ करना चाहिए| नजरमें रखो कि भीमा कुंडलियाने अपनी पूरी पुंजी जीर्णोद्धार के खाते में लिखा दी| इस सत्वसे हुआ द्रव्यलाभ और बढ़ती उदारता आदि से हुआ भाव लाभ को ध्यानमें रखिये| धन गाडने के लिए गड्ढा खोदने पर मिले हुए नये धन को देखकर वस्तुपालने अनुपमा देवीको कहा, ‘‘नये धन का क्या किया जाये?’’ तब अनुपमाने जो जवाब दिया वह ध्यान रखने योग्य है – जिसको नीचे (दुर्गतिमें) जाना है, वह धनको नीचे गाड़ता है, जिसको उपर (सद्गतिमें) जाना है, वह धनको उपर गाड़ता है यानी कि जिनालय बनवाता है..! इस धनको सभी लोग देख सकते हैं मगर कोई ले नहीं सकता| इतना ही नहीं, जो अनुमोदना करते हैं, वे भी सद्गतिमें जाते हैं | इसलिए देवद्रव्य की वृद्धि का जो भी अवसर मिले, उसमें यथाशक्ति लाभ लेकर तन-मन-धन और परंपरया जीवन को सार्थक-कृतार्थ करें | बस यह ही एक परमकृपालु परमात्मासे प्रार्थना है|
‘‘वीतराग परमात्मा की आज्ञा विरुद्ध कुछ भी कहा हो तो मिच्छामि दुक्कडम्’’

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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