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पर्युषण महापर्व

पर्युषण महापर्व

पर्वाणि सन्ति प्रोक्तानि बहूनि श्री जिनागमे|
पर्युषणासमं नान्यत् कर्मणां मर्मभेदकृत्॥

जय हो अनंत उपकारी वीतराग सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा की, जिन्होंने पर्वो में श्रेष्ठ ऐसे पर्युषण महापर्व का प्रकाश दिया| यह प्रकाश मनुष्य-जन्म में जैन को ही सरलतापूर्वक प्राप्त होता है, इसलिए मानवभवमें तो धर्मकी विशेष आराधना करनी चाहिए|

तीन युवक परदेश जाकर आये| एयरपोर्ट पर ही अग्रगण ओफिसरने तीन में से प्रथम महाराष्ट्रियन युवक को पूछा- ‘‘आप परदेश में क्या करके आये ?’’ उसने जवाब दिया- ‘‘मैं परदेशमें च.इ.अ. पास करके आया|’’ बादमें दूसरे बंगाली युवक को पूछा- ‘‘आप विदेश में क्या करके आये ?’’ उसने जवाब दिया- ‘‘मैं डोक्टरी पास करके आया|’’ बादमें तीसरे सरदारजी को पूछा – ‘‘आप विदेश में क्या करके आये?’’ सरदारजीने कहा – ‘‘मैं अमरिका में टाइम पास करके आया|’’

समझ लो! दूसरे सभी भव – चाहे नरक- पशु का हो या देव का हो, आत्मा की उन्नतिकी अपेक्षासे मात्र टाइमपास करानेवाले ही हैं| बस एक मानवभव ही कुछ करने का भव है| उसमें भी बचपन खेलकूद में और बुढ़ापा नींदमें ही प्रायः खत्म होता है| मुख्यतः १५ से ५० साल तक की उम्र ही कर्तव्य की उम्र है| उसमें भी वर्ष के बारह मास में से चातुर्मास के अलावा जो आठ मास हैं, वे करीब व्यापार-नौकरी, घूमने-फिरने और व्यवहारमें ही बीतते हैं| इन सभी बाहर की भागदौड़ में से अंदर आनेकी बेला है – चातुर्मास| ‘‘जिसका चातुर्मास सुधर गया, उसका पूरा साल सुधर गया|’’

अकबरने बीरबलसे कहा- ‘‘२७ में से ९ कम करें तो कितने बचेंगे ?’’ बीरबलने कहा- ‘‘शून्य’’| अकबरने बड़े आश्चर्य से पूछा- ‘‘शून्य?’’ ‘‘कैसे?’’ बीरबलने स्पष्टता की – ‘‘२७ नक्षत्रो में से ९ नक्षत्र वर्षा के हैं… यदि वे कम हो गये (सूख गये) तो पूरा साल निष्फल है| इसलिए मैंने शून्य कहा|’’

जो बात धान्य के लिए व पीनेके पानी के लिए है – वही बात आध्यात्मिक विकासके लिए है| जिसने चातुर्मास के चार मास आत्मा के लिए कुछ नहीं किया….वास्तवमें उसके जीवन का वह साल व्यर्थ गया| चातुर्मास के चार मास में भी चौमासी चर्तुदशी से संवत्सरी तक ५० दिन और उसमें भी पर्युषण महापर्व के आठ दिन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं| ऐसे पर्वाधिराज पर्युषण को शास्त्रकारोंने तीर्थो में शत्रुंजय और मंत्रो में नमस्कार महामंत्र की तरह पर्वो में श्रेष्ठ पर्व के रूप में विभूषित किया है|

नेशनल – हाइवे पर जगह-जगह पेट्रोल-पंप रहते हैं, सफर करने निकला हुआ मुसाफिर वहॉंसे पेट्रोल भरवा कर गाडी की गतिको मंद या बंद किये बिना शक्य शीघ्रतासे इच्छितस्थान पर पहुँच जाता है| परमगति की ओर यात्रा करने निकले हुए भव्य जीवकी संसारके आकर्षण, विषयभोग, परिवार, पैसा, प्रमाद आदि के कारण मोक्षयात्रा मंद पड जाती है – तब परमगति की ओर उसका वेग वैसा ही बना रहे और उसके लिए सतत उत्साह का ईंधन मिलता रहे इसलिए परमात्माने द्वितीया-पंचमी आदि अनेक पर्व आराधना के लिए बताये हैं|

रोज या पर्व के दिनों में, द्वितीया-पंचमी-अष्टमी-एकादशी-चतुर्दशी-पूर्णिमा-अमावस्यादि दिन पर जो तप कर सकता नहीं है, उसे भी पर्युषणा महापर्वमें तो विशेष रूपसे धर्म करने के लिए कविने कहा है कि…..
‘‘कर सको धर्मकरणी सदा तो करो यही उपदेश
सर्वदा कर न सको तो करो पर्व सुविशेष…’’
(पर्व दिन को न कर सके तो करो महापर्व सुविशेष)
‘‘वीर जिनवर इम उपदिशे’’

पर्युषण महापर्व
पर्युषण में विशेष आराधनामें लग जाने का कारण यह है कि इन दिनोमें की हुई आराधनाओंसे जो कर्मक्षय होता है – वह अन्य दिनोमें करना संभव नही होता, इसका भी प्रमुख कारण यह है कि इन दिनों में सकल संघमें पाप-प्रवृत्तिको अत्यन्त कम करने और पुण्यसर्जक – पवित्र आराधनाओमें लग जाने के लिए एक विशिष्ट छलकता उमंग-उल्लास-उत्साह होता है| इसलिए इन दिनो में किया हुआ पापत्याग या की हुई पवित्र साधनाएँ प्रायः अधिक उमंगपूर्वक ही होती हैं| ऐसा उल्लासपूर्ण माहोल अन्य पर्वदिनों में नहीं मिलता| इसलिए पर्युषण की महिमा अनूठी है|

जीव को भविष्य में दुर्गतिमें और वर्तमान में दुर्भावमें गिरने से जो बचाता है वह ही धर्म है| इसलिए धर्म के बिना एक पल भी व्यर्थ नहीं जानी चाहिए| मछलीको पानी बिना चले तो विवेकी को धर्म बिना चले – उसमें भी रोज सामान्य धर्म करनेवाले को तो तिथि-पर्व के दिनमें विशेषरूपसे धर्ममें लीन होना चाहिये क्योंकि जीवके अगले भव के आयुष्य का बंध प्रायः पर्वतिथि पर होता है| पर्व-दिनोमें धर्ममें यानी कि तप-त्याग-संयममें रहते हुए आयुष्य का बंध होने पर निश्चय सद्गति का बंध होता है| जिससे बादमें धर्मसाधना करने का सुंदर मौका मिलता है| अतः परलोक में सद्गति की परम्परा प्राप्त होती है|

कहते हैं कि पुणे शहर के केन्द्र में आया हुआ विस्तार जो आज गुरुवार पेठ के नाम से प्रसिद्ध है, वह पहले वेताल पेठ के नाम से प्रसिद्ध था| शहर के बाहरका यह विस्तार उजाड व वीरान सा था| परंतु जबसे वहॉं प्रभु गोडी पार्श्वनाथ पधारे, तबसे उस विस्तार की रौनक बदल गई| और आज वह पुणे का सबसे महत्वपूर्ण विस्तार बन गया हैं| बात यह है कि जिस क्षेत्र में भगवान पधारें, उस क्षेत्र का पूरा स्वरूप ही बदल जाये, तो जिसके जीवंत हृदयमें प्रभु पधारें, वह हृदय और उसका जीवन क्या प्रभावशाली और पूरे जगत के लिए आदर्शभूत नहीं बन जाएगा ? पर्युषण पर्वाधिराज इसलिए है कि इन आठ दिनोमें प्रतिक्रमण-पूजा(या पौषध)-प्रवचन-पच्चक्खाण और प्रायश्चित से हृदय को स्वच्छ-स्वस्थ-सुंदर बनाकर उसमें परमात्मा को बसा दे| बादमें देखो – उजाड जैसा अपना जीवन उज्वल बनता है कि नहीं ?

पर्युषण महापर्व
अलग-अलग चिंतको ने भी अलग-अलग उपमाओंसे इस पर्व की महत्ता बताई हैं| क्षमा और मैत्री के सुरम्य घोषसे गुंजता हुआ यह पर्युषण पर्व प्रदूषणमुक्ति का पर्व है| आज-कल हवा-पानी-धान्य और धरती प्रदूषित होने के कारण कई प्रश्न उठ खडे हुए हैं| टोकियो जैसे शहरमें तो सूर्योदय के पश्चात भी कई घंटो तक प्रदूषणके कारण सूर्य दिखाई नहीं देता| हवा धुएँसे, पानी क्लोरिन से, अनाज़ ऊ.ऊ.ढ. जैसे ज़हरीले कीटनाशकोंसे और धन अनीति-भ्रष्टाचार से प्रदूषित हैं, परन्तु इन सभी से ज्यादा प्रदूषित तो मानव का मन हो गया है| तुलना-प्रतिस्पर्द्धा-ईर्ष्या-बैर-खेद-उद्वेग-द्रोह-प्रपंच-विश्वासघात – बहका हुआ लोभ, मात्र धन ही पाने के लिए पैदा हुई तीव्र कुत्सित वृत्ति इत्यादि अनेक प्रदूषणोंसे मन प्रदूषित है| मानवभव तो है साधना के लिए सूर्योदय| किंतु उपर्युक्त प्रदूषणोंसे दूषित मनको यह साधनाएँ सूझती नहीं है| पर्वाधिराज के प्रथम सात दिन इस प्रदूषणको दूर करने का मास्टर-प्लान बनाने के लिए हैं और संवत्सरी का दिन है.. प्रदूषण दूर करने के कार्यक्रम को अमल में लाने का दिन|

यह पर्व हवेली में नहीं, हृदय में ज्ञानके दीप जलाने के लिए है| अकबरने बीरबलसे पूछा- क्या तू मुझे छुए बिना इस कमरे से बाहर निकाल सकता है ? बीरबलने कहा…. ऐसे नहीं…! मगर आप यदि कमरे के बाहर हो…तो आसानीसे आपको छुए बिना अंदर ला सकता हूँ| अकबरने आश्चर्यसे पूछा… ऐसा क्या ? बीरबलने कहा… हॉं ! जैसे ही अकबर कमरे से बाहर निकले, वैसे ही बीरबलने कहा… देखा ! मैंने आपको छुए बिना कमरे से बाहर निकाल दिया न ! अकबर बीरबल की चतुराई पर प्रसन्न हो गये|

बात यह है कि- जीव को क्षमा-शील-ज्ञानादि आत्मभावमें से-अंतर्भावमें से बाहर पैसा, परिवार, भोगविलास, खाने-पीने के भावोमें ले जाना आसान बात है| परंतु बहिर्भावोमें से उठाकर तप-स्वाध्याय-शील-प्रतिक्रमण इत्यादि अंदरमें – अंतर्भावोमें लाना बहुत ही मुश्किल है| आप जानते ही हैं कि आप पूजा-प्रतिक्रमण कब करते हैं ? पूजावगैरह नहीं करने के लिए आपके पास बहाने भी ढेर सारे हैं| किन्तु आपको दुकान पर जाने में, ढ.त. देखने में .. गपसप करने में… किसीकी प्रेरणा की जरुरत पडती है क्या ? और इन सब को बंद न करने के लिए कोइ बहाना तो क्या…ठोस कारण भी आपके पास है क्या? पूजा नहीं करने के लिए बहाने की खोज की जाती है| किन्तु ढ.त. नहीं देखना है- ऐसा बिचार भी आता है क्या ? इसलिए तो कहा जाता है कि – आपको संसारभावोमें जाना आसान है| धर्मभावनामें आना बहुत कठिन है| यह पर्व आपको ऐसे बाह्यभावोमें से अंदर लाने के लिए है|

अन्य त्यौहार- लौकिक त्यौहार- खाने-पीने-ज़ियाफ़त के लिए हैं| इसलिए उनमें आहारादि संज्ञाएँ पुष्ट होती हैं| जबकि पर्युषणा पर्व जैसे लोकोत्तर पर्व तपादि आराधना के लिए हैं| इन दिनोमें अट्ठमादि तप से आहारसंज्ञा, क्षमा – आलोचना इत्यादि बातें प्रवचनमें सुनकर उद्भवित शुभ भावनाओसे भयसंज्ञा, ब्रह्मचर्यपालन से मैथुन संज्ञा और संघके अनेक कार्योमें धन त्याग-दानसे परिग्रहसंज्ञा तूटती है| लौकिक त्यौहारोमें मेला – फेशन शो, एक-दूसरे को मिलने के नाम पर स्नेहमिलन का आयोजन किया जाता है| लोकोत्तर पर्वस्वरूप पर्युषण पर्व स्नेह नहीं… मैत्री – स्वजन के साथ नहीं, सर्व के साथ, होठ सें नहीं, हृदय से जुडने के लिए है और उसके लिए क्षमापना द्वारा द्वेषशमन के लिए है|

लौकिक त्यौहारोमें सभी नहा-धो कर शरीर को स्वच्छ बनाने का प्रयत्न करते हैं| लोकोत्तर पर्वमें ज्ञान, साधना की पवित्र गंगामें स्नान करके मनको स्वच्छ करना है| इस पर्वमें उलटा-सीधा खाने से चरबीसे जमें हुए अपने तनको तपसे स्वस्थ, वैर-विरोध – ईर्ष्या इत्यादि से मलिन मनको क्षमापनाके भावोसे स्वच्छ और चंचल – अस्थिर और अनीति आदिसे शीघ्र नाशवंत बने हुए अपने धनकी सुपात्र वगैरह में बोआई करके दान धर्म से उस धनको सुस्थिर-शाश्वत करना हैं|

पर्युषण पर्व यानी आध्यात्मिक डायेटींग| आत्मा में कषाय-विषय-वासनाए-संज्ञाए और कर्मोकी चरबी-मेद बहुत जमें हैं| उनसे आत्मा भारी भरकम बनी है| पर्वाधिराज के आठ दिन यानी कषायइत्यादि चरबी कम करने के दिन| वे कम हुए हैं ऐसा नौंवें दिन लगें, तो मानना की यह डायेटींग कोर्स सफल हुआ| अगर संवत्सरी के बाद आपको अब क्रोध वगैरह बार बार नहीं होते हैं ऐसी अनुभूति होती है, तो यह आध्यात्मिक डायेटींग सार्थक माना जायेगा|

पर्युषण जीवको पशुतामें से मानवता के माध्यमसे प्रभुतामें रूपांतर करनेवाला सुपर-हाइ-टेक-कोम्युटर है|
साधना के मार्गमें मंद होते उत्साह के घोड़े को फिरसे वेगवान बनानेवाले ईशारे समान ये पर्व हैं| पर्युषण पर्व ट्रान्सफोर्मर है, जिससे जीवके हाईपावरवाले कषाय… लो पावरवाले हो जाते हैं|
पर्युषण पर्व यानी अरिहंत की कृपा को प्राप्त करने के लिए रीसीवींग सेन्टर खोलने के श्रेष्ठ दिन…|
पर्युषण पर्व यानी जगतभर के जीवो के प्रति मैत्र्यादि भावो को प्रसारित करने के दिन|
पर्युषण का प्रथम कर्तव्य अमारिप्रवर्तन का पालन करने से बाघ के भवमें पुष्ट की हुई हिंसकता दूर होती है| साधर्मिक भक्ति नामके दूसरे कर्तव्य के पालन से कुत्ते के भवमें पुष्ट की हुई साधर्मिकोंके प्रति ईर्ष्या-निंदा आदि वासनाएँ मिटती हैं| क्षमापना कर्तव्यके पालनसे सॉंप-नेवला जैसे भवोसें चली आती द्वेष व वैर की परंपरा का विराम होता है| बकरी के भवमें भड़कती हुई आहारसंज्ञा को वश करने के लिए अट्ठम तप है| अस्तित्व को टिकायें रखने में प्रयत्नशील पशु और व्यक्तित्वका विकास करने की तीव्र इच्छा रखनेवाले मानवोसें उपर उठकर शुद्ध आत्मअस्तित्व का अनुभव करने और पूर्ण व्यक्तित्व को पाने के लिए अरिहंतभक्तिरूप चैत्यपरिपाटी कर्तव्य है|

पर्युषण महापर्व
इस पर्वमें श्रुतभक्तिसे ज्ञानावरण, जयणापालन से दर्शनावरण, चैत्यपरिपाटीसे मिथ्यात्व मोहनीय, क्षमापना से कषायरूप चारित्र मोहनीय और अट्ठम तप से अंतराय कर्म तूटते हैं| उसी तरह अमारिप्रवर्तनसे अशातावेदनीय टलकर शाता मिलती है| शुभभावो में रहने से नरक-पशु के भवो से बचकर उत्तम देव-मानव भवका आयुष्य प्राप्त होता है| देवद्रव्यकी वृद्धि से सौभाग्य-सुस्वर-यश आदि शुभ नामकर्म उपार्जित होते हैं और आलोचना-प्रायश्चित करने से नीचगोत्र टलकर उच्च गोत्र प्राप्त होता है| अमारि प्रवर्तन से मैत्री, साधर्मिक भक्ति से प्रमोद, क्षमापना से माध्यस्थ और तपसे करुणाभाव विकसित होता हैं| उसमें चैत्य-परिपाटीके द्वारा परमात्मभक्ति करने से सम्यक्त्व की मुहरछाप लगती है|

इस मानवभव में हमें देव-गुरु-धर्मका योग हुआ| अब पर्वाधिराजको प्राप्त करके प्रयोगमें आना है| गोली जेब में होना यह योग है, मुँह के माध्यम से पेट तक जाना वह प्रयोग है| ‘‘मिलना’’ वह योग है, ‘‘घुलना’’ वह प्रयोग है| ‘‘जानना वह योग है, अमल करना वह प्रयोग है|’’ ‘‘क्रिया योग है, आनंदकी अनुभूति प्रयोग है|’’ यदि हमारी रागद्वेषादि रूप बीमारी कम हो जाय, यदि अब हम देव-गुरु-साधर्मिक-साधनाके स्थानोमें मिल-घुल जायें, ‘ज्ञानादि आचारसे आत्महित होता है और भ्रष्टाचार-दुराचारसे आत्मा का अहित होता है| क्रोध जैसे कषायोसे सब कुछ और सबके साथ बिगड़ता है, क्षमा से सब कुछ और सबके साथ बात बनती है’ इत्यादि जानकारी को हम अमलमें लाये और पूजा-प्रवचन-प्रतिक्रमण इत्यादि क्रियाओमें आनंद का अनुभव करें, तो समझना कि हम योगमें से प्रयोगमें आ चूके हैं| एक देहाती को डॉक्टरने जुकाम के लिए गोली लिख के दी और केमिस्टके पाससे लेकर सात दिन तक लेने को कहा| सात दिन बाद भी उस देहाती का ज़ुकाम यथावत्| डॉक्टरने पूछा- गोली ली या नहीं ? देहातीने कहा- अरे ! मैंने गोली ली, इतना ही नहीं, चौबीस घंटे साथमें रखता हूँ, देखो ! अभी भी मेरे जेबमें हैं| कहिये, उसकी बीमारी किस तरह मिटेगी? हम प्रतिक्रमण करते है परन्तु यदि प्रतिक्रमणके भावोमें नहीं डूबते, तो हमारे पाप कैसे मिटेंगे?

पर्वाधिराज के दिन यानी कि विभावमें से स्वभावमें आने के दिन| गुब्बारे में हवा का कैद हो जाना वह हवा का विभाव है, वहॉंसे मुक्त हो कर सतत विहरना यह स्वभाव है| अग्निके संगसे उबलना वह पानी का विभाव है, अग्नि से मुक्त होते ही ठंडा और शीतल होना – रहना, यह पानी का स्वभाव है| उसी तरह बाहरसे परिवार आदि के और अंदरसे कर्मो के पिंजरामें कैद होना वह आत्मा की विभावदशा है, और उन सभीसे मुक्त होकर एक, शुद्ध, मुक्त होना यह आत्मा की स्वभावदशा है| पेटू की तरह खाते रहना वह विभाव है, उपवास स्वभाव है| क्रोध विभाव है, क्षमा स्वभाव है| जो सनिमित्त है वह विभाव, जो सहज है, वह स्वभाव| जिसमें संताप है, क्षणिकता है, आत्मपीड़ा है, वह विभाव है| जिसमें शांति है, दीर्घकालीनता है और पीड़ामुक्ति है, वह स्वभाव है|

विभावमें से स्वभाव में आना, यही है लोकोत्तर पर्वकी महा-महिमा, लोकोत्तर पर्वोत्सव मनाने का विशिष्ट तरीका|

इन दिनोमें बाहरकी भाग-दौड बंद करने के लिए व्यापार-रोजगार बंद करना चाहिए| हर द्वितीया-पंचमी-अष्टमी आदि तिथियॉं पर्वतिथियॉं हैं, तो उन दिनोमें आराधना करने के लिए धोना-कूटना-पीसना-रंगना आदि बंद रखना चाहिए| ब्रह्मचर्य का अवश्य पालन करना चाहिए| यथाशक्ति तपश्चर्या करनी चाहिए| भरत-चक्रवर्ती के पुत्र सूर्ययशा अष्टमी की आराधना खुद करते थें और अगले दिन राज्यमें ढिंढोरा पिटाकर प्रजाको भी आराधना की प्रेरणा करते थे| उन्होंने भी अपने पिता की तरह आरिसाभवनमें केवलज्ञान पाया था| ऐसे कर्मलघु और महान वैरागी सम्राट राजा भी पर्वतिथिकी आराधना नियमित करते थे| तो आप सम्राट तो नहीं, लेकिन घरके भी मालिक कहॉं हो ? तो आपको पर्वतिथिकी नियमित आराधना करनी चाहिए कि नहीं ?

छगनने मगनको पूछा- क्या? सब ठीक-ठाक चल रहा है न? तब छगनने कहा- हॉं ! घरमें पत्नी का और ऑफिसमें बॉस का बराबर चल रहा है…मेरा तो कहीं भी नहीं चलता|

हमारी भी यही परिस्थिति है, क्योंकि पूर्वभवमें प्रभुकी पॉंचो अंगुलियों से पूजा नहीं की थी, धर्मके सभी प्रसंगमें बहाने बनाकर खिसक गये थे और फिर भी इस जन्ममें जिसके सामने अपना कुछ चलता नहीं है उसकी झंझटमें चौबीस घंटे मग्न रहते हैं| यदि अब वास्तवमें बाहर की दुनियामें और इन्द्रिय-विषयो के सामने अपनी आत्मा का सामर्थ्य बरकरार रहे वैसा करना है तो पर्वतिथि की आराधना करनी चाहिए|

आप को महिने की १० तिथि और पर्युषण पर्व वगैरह पवित्र दिनोमें हरी सब्ज़ी-भाजी का त्याग करना चाहिए| पर्युषणमें साबुनसे नहाना…धोना या अनाज़ कूटना-दलना पीसना …इत्यादि का त्याग करान चाहिए|

पर्युषण महापर्व
पर्वाधिराज पर्युषण पधार रहे हैं| इन आठ दिनोमें अच्छा सुकृत सर्जन के रुप में लिखिए, जिससे भविष्यमें पुण्योदय के रूप में सुंदर पढनेको मिले| नीम लिखोंगे तो आम पढ़ने नहीं मिलेगा| जैसा लिखा होगा, ठीक वैसा हि पढने मिलेगा| यदि सुंदर पढ़ने की कामना हो, तो सालमें एकबार आने वाले पर्वके दिनोमें प्रमाद को छोड़कर, विषयेच्छा को मोड़कर, झुठी दाक्षिण्यता – लज्जा को तोड़कर, शरीरकी मूर्च्छा – देहाध्यासको घोलकर, परचिंता को त्यागकर, अपनी शक्ति-उत्साह-उल्लास से आठ दिन का स्वागत करके आराधना करने जैसी है|

प्रभुने पृथ्वी-पानी यावत् वनस्पतिमें भी जीवत्व है ऐसा जो बताया है, उसमें श्रद्धारूप सम्यग्दर्शनकी आराधना तब ही होगी, जब हम इन दिनोमें कूटना-दलना-वगैरह हरी सब्ज़ी-भाजी, फल वगैरह का उपयोग नहीं करके अमारि-प्रवर्तन का कर्तव्य निभायें|

पापप्रचुर दुनियामें धर्म और धर्म करनेवाले ये दोनों अत्यंत दुर्लभ हैं| धर्मकी समझ जीवको अहंकार और ईर्ष्यासे मुक्त करती है| ‘धर्म करनेवाले साधर्मिक ईर्ष्या-निंदाके नहीं, अनुमोदना-प्रमोद के स्थान हैं| साधर्मिक प्रभु के शासन की पीढ़ीके रखवाले हैं| हमें धर्म में जोड़नेवाले, स्थिर करनेवाले, आगे बढ़ानेवाले हैं| और जहॉं धर्म याद आना दुष्कर है, वहॉं भी धर्मकी याद दिलानेवाले हैं’ इत्यादि गुरुगमसे प्राप्त हुआ ज्ञान तो ही सम्यग् बनेगा यदि हम उन साधर्मिकों की १) तनसे सेवा भक्ति-वैयावच्च, २) वचनसे जाहिर में प्रशंसा-सन्मान ३) मनसे गुणोकी अनुमोदना-प्रमोदभावना, ४) धनसे पहिरावनी-स्वामीवात्सल्य ५) धर्म-सामायिक प्रवचनश्रवणादि के लिए अनुकूलता, अभिषेक-पूजादि जैसे कार्योमें प्रथम लाभ वगैरह और ६) व्यवहारसे-उदारतापूर्वक-व्यापारादिमें भी वे आगे बढ़े ऐसी व्यवस्था आदि के माध्यमसे भक्ति करें|

क्रोध विभाव है, और क्षमा स्वभाव है| स्वभावरमणता ही आत्माका सच्चा चारित्र है| इसलिए सम्यक्चारित्र की आराधना क्षमाभावसे-क्षमापना कर्तव्य का पालन करने से ही हो सकती है| पर्युषण के दौरान सभी विधियॉं का पालन करने के लिए आहारसंज्ञा पर नियंत्रण जरुरी है| अट्ठम तप कर्तव्य का पालन करने से आहारसंज्ञाजय और तपधर्म की आराधना होती है| चैत्यपरिपाटी द्वारा प्रभुभक्ति से ऐसा वीर्योल्लास प्रकट होता है कि उपर्युक्त चारों में उत्साह टिका रहता है| इस तरह पॉंच कर्तव्य करने से चार धर्म – पंचाचारका पालन होता है और जीव यथार्थ आराधनासे जुड़ता है|

ज्ञानियोंने पर्युषणा महापर्व के ये पॉंच विशिष्ट कर्तव्य बताये हैं|
१) अमारि-प्रवर्तन २) साधर्मिक भक्ति ३) क्षमापना ४) अट्ठम तप ५) चैत्यपरिपाटी

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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6 Comments

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  1. nisha vikrant sakala
    सित॰ 14, 2012 #

    Happy paryushan mahaparva

    Yea lakhe Padhakar bhaute acchalaga

  2. Milan Shah
    सित॰ 16, 2012 #

    Happy Paryushan Parv…Michhami dukkadam…

  3. tarun jain
    सित॰ 19, 2012 #

    happy paryushan parv ……..

  4. abhay lodha
    सित॰ 20, 2012 #

    michami dukkdam

  5. mcborar
    सित॰ 20, 2012 #

    a very good text to today’s generation. Regards to swamiji.I m jain swetamber terapanthi follower.I like jainism in totallity.

  6. jashvant shah
    अग॰ 3, 2014 #

    Mathaen Vandami.

    Aapne yah lekh mein ek jagah bataya hai ki ” krodh vidhav hai aur khama swabhav hai. Mera khayal isse thoda alag hain. ” krodh vibhav to haihi per “AKRODH ” swabhav hain. Tathya Kevali gamya.

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