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कामलक्ष्मी और उनके पुत्र केवलज्ञानी बने

कामलक्ष्मी और उनके पुत्र केवलज्ञानी बने
लक्ष्मीतिलक नगर में एक दरिद्र वेदसार नामक ब्राह्मण था| उसकी पत्नी का नाम कामलक्ष्मी था| वेदसार ब्राह्मण के वेदविचक्षण नाम का पुत्र था| प्रतिपक्षी राजा ने लक्ष्मीतिलक नगर पर आक्रमण कर दिया| कामलक्ष्मी पानी भरने के लिए नगर के बाहर गई थी| आक्रमण के कारण नगर के दरवाजे बन्द कर दिये| अतः कामलक्ष्मी बाहर ही रह गई|

कामलक्ष्मी और उनके पुत्र केवलज्ञानी बने
एक सिपाही उसे उठाकर राजा के पास ले गया| राजा ने उसे सौन्दर्य की मूर्ति जानकर अपनी रानी बना ली| कालान्तर में जब वेदविचक्षण बड़ा हो गया| तब उसे घर सौंप कर वेदसार ब्राह्मण अपनी पत्नी की खोज के लिये निकल पड़ा|

दूसरी ओर स्वपति पर अनुराग रखने वाली कामलक्ष्मी राजा की अनुमति से प्रतिदिन दान देने लगी, ताकि उसका ब्राह्मण पति उसे किसी भी तरह से याचकसमूह में मिल जाये| एक बार घूमता-घूमता वेदसार ब्राह्मण वहॉं दान लेने आया| कामलक्ष्मी ने उसे पहचान लिया| पास में बुलाकर उसको स्वयं का परिचय दिया और उसके साथ भाग जाने के लिये एक योजना बनाई और कहा कि सातवें दिन मैं चंडीदेवी के मन्दिर में रात को आऊँगी| आप भी वहॉं आ जाना| वहॉं से हम दोनों इष्ट स्थान पर चले जायेंगे|

इसके बाद रानी ने पेटदर्द का बहाना बनाया| अनेक वैद्य आये, परन्तु कोई फर्क नहीं पड़ा| तब कामलक्ष्मी ने राजा से कहा-मैंने एक बार आपकी बीमारी के समय मन्नत (मानता) की थी कि ‘‘हे चंडीदेवी ! यदि यह वेदना मिट गई, तो मैं और राजा दोनों काली चौदस के दिन तेरे पूजन के लिए आयेंगे|’’ उसी समय आपकी वेदना शांत हो गई थी| परन्तु बाद में मैं पूजन हेतु जाना भूल गई| अतः हे राजन् ! आने वाली काली चौदस को पूजा करने हेतु चलने का निर्णय कर लीजिये| इसे सुनने के बाद राजा द्वारा निर्णय करने पर वेदना शांत हो गई| इस प्रकार का दिखावा कामलक्ष्मी ने किया| चौदस के दिन घोड़े पर बैठकर राजा-रानी पूजा का सामान लेकर चंडीदेवी के मन्दिर की ओर रवाना हुए|

कामलक्ष्मी और उनके पुत्र केवलज्ञानी बने
चंडीदेवी के मन्दिर पर पहुँच कर घोड़े से उतर कर राजा व रानी चंडी देवी के मन्दिर की ओर चलने लगे| राजा मन्दिर के बाहर तलवार रखकर मन्दिर के दरवाजे पर माथा झुकाकर ज्योंही प्रवेश कर रहा था, इतने में पीछे से रानी ने तलवार उठाकर राजा के गले पर प्रहार कर दिया| राजा का मस्तक धड़ से अलग हो गया| कामलक्ष्मी ने अन्दर दीपक के प्रकाश में जाकर देखा, तो वेदसार ब्राह्मण को सर्प ने डस लिया था| उसका शरीर नीला हो गया था| उसके प्राण पंखेरू उड़ गये थे| रानी ने विचार किया कि ‘‘अब क्या करूँ, यदि राजभवन में लौटूंगी, तो राजहत्या का आरोप शायद मुझ पर आ जायेगा|’’ अतः रानी घोड़े पर बैठकर जंगल में भाग गई| भागते-भागते एक नगर में माली के घर घोड़े को खड़ा कर स्वयं एक मन्दिर में गई| वहॉं बाजे बज रहे थे| अलंकार और श्रृंगार से सज्जित एक नारी को देखकर एक स्त्री ने उससे पूछा-तुम कौन हो? कहॉं से आयी हो? किस की अतिथि हो? उसने असत्य का जाल बिछा कर कहा कि मैं अपने पति के साथ ससुराल जा रही थी| बीच में चोर मिले और उन्होंने मेरे पति को मार डाला| मैं किसी प्रकार से बच कर यहॉं आई हूँ| यहॉं मेरा कोई नहीं हैं ! मैं निराधार हूँ| ये बातें सुनकर उस स्त्री ने मायावी वचनों से कामलक्ष्मी को आकर्षित किया और अपने घर ले गई| वह स्त्री एक वेश्या थी| उसने कामलक्ष्मी को भी गीत नृत्य आदि कलायें सिखाकर वेश्या बना दी|

कामलक्ष्मी और उनके पुत्र केवलज्ञानी बने
एक दिन वेदविचक्षण ने विचार किया कि मेरी माता की तलाश में पिताजी गये थे| माताजी तो आई नहीं, परन्तु पिताजी भी नहीं आये| क्या कहीं वे भी खो गये? क्या हुआ ? मैं उनकी तलाश करने जाऊँ | यह विचार करके युवक वेदविचक्षण घर से निकला| घूमते-घूमते वह उसी वेश्या के यहॉं आया और वहॉं फँस गया| कुछ समय बीतने के पश्‍चात् धन समाप्त हो जाने पर वह वेश्या का घर छोड़कर जाने लगा, तब उसने वेश्या को स्वयं का परिचय दिया| उसे सुनकर कामलक्ष्मी को मन में खूब दर्द हुआ|

कामलक्ष्मी और उनके पुत्र केवलज्ञानी बनेवह युवक तो चला गया| उसके बाद कामलक्ष्मी के मन में विचार आया कि ‘‘अरर ! यह मैंने भयंकर भूल की हैं, अरर ! मैंने पुत्र के साथ दैहिक संबंध कर लिया| उसकी सज़ा यही है कि, मैं जाज्वल्यमान चिता में जलकर भस्म हो जाऊँ|’’ यह बात प्रधान वेश्या को मालूम हुई| उसने कामलक्ष्मी को खूब समझाया, परन्तु वह न मानी| उसने नदी के बीच में चिता जलाई और उसमें कूद पड़ी| संयोग से उसी समय भारी बरसात आ गई और चिता बुझ गई| नदी में बाढ़ आने से नदी के प्रवाह में कामलक्ष्मी बह गई| एक ग्वाले की नज़र नदी के प्रवाह में बहती हुई उस पर पड़ी और उसने उसको खींच कर बाहर निकाली| अनेक उपचार करने पर कामलक्ष्मी स्वस्थ हुई| तब ग्वाले ने उसे अपनी पत्नी बना ली|

एक बार वह मटका भर कर दही बेचने गई| उसके साथ एक दूसरी स्त्री पानी का मटका भरकर चली आ रही थी, उनके पीछे हाथी दौड़ता हुआ आ रहा था| दोनों स्त्रियां घबराहट से दौड़ने लगी| इतने में उनके मटके फूट गये| पानी का मटका जिसका फूटा था, वह रोने लगी और दही का मटका जिसका फूटा था, वह हँसने लगी|

कामलक्ष्मी और उनके पुत्र केवलज्ञानी बने
एक पुरोहित आकर उसके हँसने का कारण पूछने लगा, तब उसने कहा-‘‘मैं किस-किस दुःख को रोऊँ, बहुत दुःख आ जाने से थोडा दुःख, दुःख रूप नहीं लगता| जैसे बड़ा ऋण हो जाय, तो छोटा ऋण, ऋण रूप में नहीं सताता|’’ उसने बगीचे में बैठकर स्वजीवनी सुनाई| वह पूछने वाला पुरोहित और कोई नहीं, उसका ही पुत्र वेदविचक्षण था| सारा वृत्तांत सुनकर उसको मार्मिक चोट लगी| अरर ! यह मैंने क्या किया ? माता के साथ संभोग ! धिक्कार हो मेरी विषय वासना को| मां बेटे दोनों करूणा के भंडार तुल्य पूज्य गुरुदेव से आलोचना-प्रायश्‍चित्त लेकर चारित्र स्वीकार कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गये| जिस प्रकार हृदय में किसी भी प्रकार का शल्य या शरम रखे बिना शुद्ध भाव से आलोचना लेकर माता-पुत्र शुद्ध बने| उसी प्रकार अपने को भी लज्जा रखे बिना शुद्ध आलोचना लेनी चाहिए|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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