माइ असणपाणस्स
खाने-पीने की मात्रा के ज्ञाता बनो
यही बात पीने की वस्तुओं के लिए भी कही जा सकती है| स्वाद-लोलुप व्यक्ति पेय पदार्थों की मात्रा के विषय में तो और भी अधिक लापरवाह होता है| भ्रम से वह मान बैठता है कि पेयपदार्थ तो पेट में आसानी से पच ही जायेंगे | दही की लस्सी, दूध, शर्बत, सोडा-लेमन, गोल्डस्पाट, कोकाकोला, चाय, काफी, शहद, शराब, गे का रस आदि सैंकड़ो वस्तुएँ बाजार में बिकती हुई वह देखता है और स्वाद का सुख भोगने के लिए एक के बाद एक पीता ही रहता है| वह भूल जाता है कि इन्हें पचाने के लिए भी पेट को श्रम करना पड़ता है| न पचने पर इनसे भी अनेक रोग उठ खड़े होते हैं और डॉक्टरों के दरवाजे खटखटाने को व्यक्ति विवश हो जाते हैं|
सुज्ञ मात्रा के अनुसार ही खाते-पीते हैं, अधिक नहीं|
- उत्तराध्ययन सूत्र 2/3
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