अनन्त संसार में मूढ बहुशः लुप्त (नष्ट) होते हैं
जिस वस्तु पर मोह पैदा हो जाता है, वह यदि न मिले तो उसे पाने के लिए निरन्तर प्रयास किया जाता है और उसमें औचित्य का या नीतिधर्म का भी ध्यान नहीं रखा जाता – इस प्रकार व्यक्ति धर्मनष्ट तो होता ही है, साथ ही जब तक अभीष्ट वस्तु प्राप्त नहीं हो जाती; तब तक अशान्त भी रहता है|
अभीष्ट वस्तु प्राप्त होने पर भी मन को पूरी शान्ति नहीं मिल पाती; क्यों कि तब उसे सँभालने की – नष्ट न होने देने की – चारों से उसकी रक्षा करने की चिन्ता सिरपर सवार हो जाती है| कुछ लोग उसे मॉंगने आते हैं, सो यदि उन्हें वह वस्तु दे दी जाये तो बिगड़ने की शंका रहेगी और न दी जाये – देने से इन्कार कर दिया जाये; तो मित्रों के ‘शत्रु’ बन जाने का डर रहता है|
इसलिए मोह छोड़े बिना इस संसार में दुःख नहीं छूट सकता|
- उत्तराध्ययन सूत्र 6/1
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