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संयम और तप

संयम और तप

संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ

संयम और तप से आत्मा को भावित (पवित्र) करता हुआ साधक विहार करता है

राग-द्वेष, विषय-कषाय से कलुषित आत्मा किसी शरीर का आश्रय लेकर इस विशाल संसार में भटकती रहती है| उसका यह भवभ्रमण तब तक नहीं मिट सकता, जब तक उसका वह कालुष्य नहीं मिट जाता, जो उसे इस प्रकार भटकने को विवश करता रहता है|

कालुष्य मिटाने के लिए क्या किया जाये? इस विषय में शास्त्रकार दो उपाय सुझाते हैं- संयम और तप| मुनिजनों का मन निर्मल होता है, हृदय स्वच्छ होता है – उसका कारण यही है कि वे संयम और तप की विशेष साधना करते हैं| इस साधना से उनकी आत्मा धीरे-धीरे कालुष्य रहित होती जाती है|

मन, वचन और काया के संयम द्वारा वे अपने पापों पर जहॉं अंकुश लगाते हैं – आस्रव के द्वारों को बन्द करते हैं, वहीं बाह्य मौर अभ्यन्तर तप के द्वारा सञ्चित कर्मों की निर्जरा करते हैं| इस प्रकार संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को भावित (पवित्र) करते हुए मुनिजन विहार करते रहते हैं|

- उपासकदशा 1/76

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