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विग्रहवर्धक बात न कहें

विग्रहवर्धक बात न कहें

न य विग्गहियं कहं कहिज्जा

विग्रह बढ़ानेवाली बात नहीं करनी चाहिये

बहुत-से लोगों की यह आदत होती है कि वे अधूरी बातें सुन-सुनाकर कलह उत्पन्न कर देते हैं| कभी-कभी अपनी ओर से नमक-मिर्च लगाकर वे बात का बतंगड बना देते हैं – तिल का ताड़ कर देते हैं और राई का पहाड़|

इधर-उधर की भिड़ा कर वे दो व्यक्तियों में, दो कुटुम्बों में अथवा दो राष्ट्रों में झगड़ा पैदा कर देते हैं और फिर दूर खड़े-खड़े उनके कलह का तमाशा देखते रहते हैं| लोग आपस में झगड़ते हैं – परस्पर निन्दा करते हैं – चिल्लाते हैं और वे लोग यह सब सुनकर प्रसन्न होते हैं|

यह आदत बुरी है| यदि हम दूसरों को लड़ाते हैं; तो दूसरे भी हमें लड़ा सकते हैं| यदि हम क्लेश उत्पन्न करके दूसरे परिवारों की शान्ति नष्ट करते हैं; तो दूसरे लोग भी इसी प्रकार हमारे परिवार की शान्ति नष्ट कर सकते हैं| परिणामस्वरूप पूरे विश्‍व में अशान्ति फैल सकती है- पूरा विश्‍व कलहाग्नि में प्रविष्ट हो सकता है|

ज्ञानियों ने यही सोचकर इस बुरी आदत को छोड़ने की सलाह देते हुए कहा है कि विग्रहवर्धक बात नहीं कहनी चाहिये|

- दशवैकालिक सूत्र 10/10

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