माया मित्रता को नष्ट करती है
मैत्री का आधार विश्वास है और माया का आधार विश्वासघात है; इसीलिए मैत्री और माया-इन दोनों मनोवृत्तियों में घोर शत्रुता है – अत्यन्त विरोध है| ये दोनों किसी व्यक्ति में एक साथ नहीं रह सकती| जिस समय मन में मित्रता की पवित्र भावना विराजमान होगी, उस समय उसमें माया जैसी अपवित्र कुटिल मनोवृत्ति का निवास नहीं हो सकता और जिस समय किसी के मन में माया का अन्धकार छाया हो, उसी समय उसके मन में मैत्री का प्रकाश नहीं पाया जा सकता|
मायावी व्यक्ति झूठ बोलकर दूसरों को धोखा देता है, जिससे उसकी स्वार्थसिद्धि हो सके; किंतु वह भूल जाता है कि काठ की हँडिया दूसरी बार चूल्हे पर नहीं चढ़ सकती, उसी प्रकार एक बार ही किसी को धोखा दिया जा सकता है, बार-बार नहीं| जब पता चल जाता है कि अमुक व्यक्ति मायावी है – कपटी है तो उस पर से लोगों का विश्वास उठ जाता है और तब लोगों पर माया का जादू नहीं चल सकता; क्यों कि कपट मित्रों का नाशक है|
- दशवैकालिक सूत्र 8/38
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