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आप स्वयं अपने मित्र है|


पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं,
किं बहिया मित्तमिच्छसि

हे पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है| अन्य बाहर के मित्रों की चाह क्यों रखता है ?

कहते हैं, ईश्‍वर भी उसीकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करता है| इसका आशय यही है कि दूसरों की सहायता की आशा न रखते हुए हमें स्वयं ही अपने कर्त्तव्य का पालन करते रहना चाहिये|

जो साधक अपने कर्त्तव्य मार्ग पर डटा हुआ है, उसे दूसरों की सहायता मिले या न मिले, वह कोई परवाह नहीं करता| वह सबसे मैत्री रखता है, परन्तु उससे दूसरे कौन कौन मैत्री रखते हैं – इस बात का वह विचार नहीं करता| मित्रता रखने वालों से मित्रता रखना तो एक व्यापार है, क्यों कि जो हमारी सहायता करते हैं, हम भी उन्हींकी सहायता करते हैं| इस प्रकार सहायता के बदले सहायता करना विनिमय है| साधक व्यापारी नहीं होता, वह विनिमय का विचार किये बिना वृक्षों की तरह, सरिता की तरह, बादल की तरह अथवा सूर्य की तरह सब की सहायता करता रहता है; परन्तु बदले में सहायता पाने की अपेक्षा नहीं रखता – वह अपना मित्र स्वयं है|

- आचारांग सूत्र १/३/३

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