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बीच में न बोलें

बीच में न बोलें

राइणियस्स भासमाणस्स वा
वियागरेमाणस्स वा नो अन्तरा भासं भासिज्ज

अपने से बड़े गुरुजन (रत्नाधिक) जब बोलते हों – व्याख्यान करते हों, तब उनके बीच में नहीं बोलना चाहिये

सद्गुण ही वास्तव में रत्न हैं, चमकीले पत्थर नहीं| जो व्यक्ति अपने से अधिक गुणवान है, उसके लिए रत्नाधिक शब्द का प्रयोग शास्त्रों में आता है| रत्नाधिक गुरुजन जब बोल रहे हों, चर्चा कर रहे हों अथवा व्याख्यान कर रहे हों, तब विनीत शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह उनके बीच-बीच में न बोले|

सभ्यता का यह नियम है कि सामनेवाला व्यक्ति अपनी बात जब तक पूरी न कर ले तब तक हम मौन रहें| उसकी बात सुनते रहें और फिर अपना उत्तर दें या मुँह खोलें| गुरुजनों के विनय में सभ्यता के इस नियम का अधिक सावधानी से पालन करना चाहिये|

बहुत-से लोगों को बीच-बीच में बोलकर बात काटने की बुरी आदत पड़ जाती है| समझदार व्यक्ति इस बुरी आदत से दूर रहते हैं| यदि ऐसी बुरी आदत पड़ जाये; तो उसे शीघ्र छोड़ने का परामर्श देते हुए कहा गया है कि ‘बोलते हुए ज्ञानियों के बीचमें न बोलें|’

- आचारांग सूत्र 2/3/3

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