श्री सुविधिनाथ जिन स्तवन
राग : केदारो – ‘‘एम धन्नो धणने परचावे रे…’’ ए देशी
सुविधि जिनेसर पाय नमीने, शुभ करणी एम कीजे रे;
अति घणो ऊलट अंग धरीने, प्रह ऊठी पूजीजे रे.
द्रव्य भाव शुचि भाव धरीने, हरखे देरे जइए रे;
दह तिग पण अहिगम साचवतां, एकमना धुरि थईए रे.
कुसुम अक्षत वर वास सुगंधी, धूप दीप मन साखी रे;
अंग-पूजा पण भेद सुणी ईम, गुरुमुख आगम भाखी रे.
एहनुं फळ दोय भेद सुणीजे, अनंतर ने परंपर रे;
आणापालण चित्तप्रसन्नी, मुगति सुगति सुरमंदिर रे.
फूल अक्षत वर धूप पइवो, गंध नैवेद्य फल जळ भरी रे;
अंग-अग्रपूजा मळी अडविध, भावे भाविक शुभगति वरी रे.
सत्तर भेद एकवीस प्रकारे, अठोत्तर सत भेदे रे;
भावपूजा बहुविध निरधारी, दोहग दुरगति छेदे रे.
तुरिय भेद पडिवत्ती पूजा, उपशम खीण सयोगी रे;
चउहा पूजा इम उत्तरझयणे, भाखी केवळभोगी रे.
इम पूजा बहु भेद सुणीने, सुखदायक शुभ करणी रे;
भाविक जीव करशे ते लेशे, ’आनंदघन’ पद धरणी रे.
अर्थ
गाथा १:-
प्रभातसमय शीघ्रतापूर्वक निद्रात्यागी करके, अनुपम आंतरिक उल्लासपूर्वक श्री सुविधीनाथ जिनेश्वर देव को त्रिविध प्रणाम कर उनकी पूजा रुप शुभं करती करता आवश्यक है|
गाथा २:-
द्रव्य एवं भाव की पवित्रता धारण करके जिनालय जाएँ, तथा वहां जाने के पहले दश त्रिक एवं पांच अभिगमो का जग्न करें|
गाथा ३:-
पुष्प, तंडुल (चावल), उत्तम वसक्षेप, सुंगधी धूप, इन पांच प्रकारों द्वारा प्रभुजी के अंगको स्पर्श कर अथवा अनुलक्षण द्वारा होने अंगपूजन नेत्र का जिस आगम में विवरण हैं उसका श्री गुरुमहाराज के श्रीमुख से श्रवण कीजिये, तथा उसे मनमें भावपूर्वक धारण कीजीये|
गाथा ४:-
इस जिन पूर्ण से दो प्रकार के फल के प्राप्ती होती है| (१) अनंतर (२) परंपर अनंतर फल की तत्काल प्राप्ती होती है, तथा परंपर फल की कालक्रम से प्राप्ती होती है| चित्त की प्रसन्नता यह अनंतर, अर्थात तत्काल प्राप्त होनेवाला फल हैं| श्री जिनाज्ञा के अनुसार श्री जिनपूजन करने से इस फल की सत्वर प्राप्ति हो जाती है| परंपर फल मनुष्य भव रुप सदगति देवलोक के प्राप्ति और अंतमें मोक्षप्राप्ती रुप है|
गाथा ५:-
परमात्मा के अंगो की होनेवाली अंगपूजा एवं प्रभु के समक्ष की जानेवाली अंगपूजा इस दोनो के मिलाकर पुष्पपूजन, अक्षतपूजन, श्रेज्ञ् धूप, दीप, सुगंधी, केसर, चंदन, नैवेद्य, फल और जलपूजन ऐसे आठ प्रकार है|
गाथा ६:-
द्रव्यपूजा के सत्रह, एकसौ आठ इत्यादि अनेक प्रकार हैं. उसी प्रकार चैत्यवंदन, देववंदन, चतुर्विशती स्तवन आदि भावपूजाओं का सविस्तर विवरण शास्रो में किया गया है| परमात्मा का पूजन दुर्भाग्य एवं दुगर्ति का नाश करता है|
गाथा ७:-
उपशांत मोह गुणस्थानक अथवा क्षीण मोह गुणस्थानक एवं सयोगी केवली गुणस्थानकोंपर उन गुणस्थान की प्राप्ति करानेवाली पुजा के चार प्रकार है, (१) अंगपूजा, (२) अग्रपूजा, (३) भावपूजा, (४) प्रतिपातिपूजा, जिनका वर्णन केवलज्ञानरुप लक्ष्मी के भोक्ता श्री सर्वज्ञ परमात्माने उत्तराध्यन सूत्र में किया है|
गाथा ८:-
इस प्रकार पूजन के अनेक मेंदोका श्रवण करके, लौकिक एवं अलौकिक सुख प्रदान करनेवाली पूजा नामक शुभ करनी जो भव्य जीव करेगा वह आनंदपथ की पृथ्वी अर्थात सिद्घाशीला अर्थात मोक्ष प्राप्त करेगा|
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