श्री ऋषभदेव जिन स्तवन
राग : मारु – ‘‘करम परीक्षा करण कुमार चाल्यो…’’ ए देशी
ऋषभ जिनेसर प्रीतम माहरो रे,
ओर न चाहुं रे कंत;
रीझ्यो साहिब संग न परिहरे रे,
भांगे सादि अनंत.
प्रीत सगाई रे जगमां सहु करे रे,
प्रीत सगाई न कोय;
प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही रे,
सोपाधिक धन खोय.
कोई कंत कारण काष्ठ भक्षण करे रे,
मिलस्युं कंतने धाय;
ए मेलो नवि कहिये संभवे रे,
मेलो ठाम न ठाय.
कोइ पति रंजण अति घणो तप करे रे,
पतिरंजण तनुं ताप;
ए पतिरंजण में नवि चित्त धर्यो रे,
रंजण धातु मिलाप.
कोई कहे लीला रे अलख अलख तणी रे,
लख पूरे मन आस;
दोष रहितने लीला नवि घटे रे,
लीला दोष विलास.
चित्त प्रसन्ने रे पूजन फळ कह्युं रे,
पूजा अखंडित एह;
कपट रहित थई आतम अरपणा रे,
’आनंदघन’ पद रेह.
अर्थ
गाथा १:-
श्री आनंदधनजी महाराज कहते है, कि, मेरा एकमात्र प्रियतम श्री ऋषभदेव प्रभु है, अन्य किसी पति की में चाह मुझमें नहीं है, मेरे ये प्रियतम ऐसे इतने भले है कि प्रसन्न होकर वे मुझे अपने ही साथ रखते हैं, और मुझे अपने समान बना देते हैं|
गाथा २:-
जगत के प्रत्येक जीव प्रेम अथवा रिश्तेनातों के अनुबंधो में बंध जाते है तो है, परंतु ऐसे संबंधो कें प्रीति तल का अस्तित्व नहीं होता है| सत्य प्रीति तो परस्पर के बीच की उपाधिरहित अवस्था के कारण बंधती है| स्वार्थजन्म प्रीति में तो धनलाभ हाथ धोना पडता है, अर्थात आत्मथन को बहुत नुकसान पहुँचता है|
गाथा ३:-
अन्य भव में भी मुझे यह ही पति प्राप्त हो, ऐसी इच्छा से प्रेरित होकर कितनी ललनाएँ दौडकर अपने मृत पतिकी चिता पर काज्ञ्भक्षण करती हैं, आग्नसकन करती हैं| आग्न में जलकर भस्मीभूत हो जाती है, परंतु ऐसा करने से भी पतिमिलन संभवन नहीं होता, क्योंकि मृत्यु के उपरांत पतिपत्नी दोनों का एक ही स्थान पर उत्पन्न होना प्रायः असंभव है|
गाथा ४:-
कितनी नारीयॉं पति को आनंद देने के लिए घोर तप करती हैं, एवं पति के रँजन के लिए शारीरिक कष्ट भी सहती है, आनंदधनजी महाराज कहते है इस प्रकार के रंजन के लिए मेरे मनमें कोई स्थान नहीं है, दो धातुओं के मिलाप की तरह एकरुप होने वाले रंजन को मैं रंजन कहता हूँ|
गाथा ५:-
कोई कहते हैं कि, मन लाखो मनोकामनाओं को पूर्ण करनेवाले अलख की लीलाएँ अतकर्क एवं अगम्म हैं| परंतु दोषरहित को शीलाए नहीं है, क्योंकि लीला, क्रीडा मे भी दोष का ही विस्तार है|
गाथा ६:-
परमात्मा के पूजन का ङ्गल पिता की प्रसन्नता है, और यह ही वास्तविक पूजा है, किसी भी प्रकार के कपट बिना परमात्मा को आत्मसमर्पण करना यह ही मोक्षपद की निरूपनी है|
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