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क्रोध – एक अग्नि

क्रोध   एक अग्नि
एकबार आये हुए क्रोध में कितने सालों के तप और संयम को भस्मीभूत करने की ताकात है ? यदि कोई ऐसा प्रश्न करें, तो जवाब यह है कि- तप और संयम का उत्कृष्ट काल है देशोन पूर्व क्रोड वर्ष| इतने दीर्घ कालमें तप और संयम की जो साधना कर सकते हैं, उस साधना को भस्मीभूत करने की ताकत एकबार के आये हुए क्रोध में है|

(एक करोड़ पूर्व वर्ष यानी कि ७०,५६०,००,००,००,००,००,००,००,०० वर्ष, ७०५६ के उपर सत्रह जीरो| एक पूर्व यानी कि सत्तर हज़ार पांचसो साठ अरब वर्ष) अब आप ही कहो कि दुनिया में सबसे बड़ा अपराध क्या है ? आपको कहना ही पडेगा कि क्रोध करना ही सबसे बड़ा अपराध है, क्योंकि सब से बड़ा दंड क्रोध का ही है| अब आपसे मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि अन्य के छोटे अपराध को देखकर बड़ा अपराध करना वह होशियारी है कि मूर्खता ? आपको कहना ही पड़ेगा कि मूर्खता है| बस, फलित यह हुआ कि अन्यके अपराध को देखकर क्रोध करना बड़ा अपराध है और मूर्खता भी है| यह बात भी सच है, क्योंकि अपराध करनेवाले को शायद अपराध का पछतावा होगा और वह बच भी जाएगा किन्तु इस अवसर पर क्रोध करनेवाले को जब क्रोध करना ही उचित लगता है, तब अपराधभाव कहॉं रहेगा ? पश्चाताप कब होगा ? अपराधी शांब दीक्षा लेकर मोक्ष में पहुँच गये और क्रोध करनेवाला द्वैपायन संसार की दुःखमय चक्की में पिसाने के लिए भटकता रहेगा| याद रखिए कि क्रोध कभी उचित नहीं हो सकता| शायद परिस्थितिवश जरुरी लगने पर भी उचित तो हरगीझ नहीं है|

शास्त्रमें क्रोध को अग्नि की उपमा दी गई है| अग्नि एक धारवाली नहीं, दो धारवाली नहीं लेकिन दस धारवाली तलवार है| जो ४ दिशा, ४ विदिशा, उर्ध्व और अधो यानी कि दश- दिशाओमें स्थित व्यक्ति या वस्तु को एक साथ जलाकर खाक कर सकती है| क्रोध भी ठीक वैसा ही है| एक बार एक व्यक्ति की भूलसे क्रोध उत्पन्न होने के बाद तो जो भी निकट आया उसे जला देगा| ओफिस में बोस जब एक कर्मचारी के उपर क्रोध करता है, तब अन्य सभी कर्मचारीओं का टेन्शन भी बढ़ता है, क्योंकि कब – कौन लपेटमें आयेगा, कह नहीं सकते| क्रोध से संपूर्ण वातावरण संक्लेशमय, नरकमय बन जाता है|

और यह बात तो निश्चित है कि क्रोध करनेवाले हर एक व्यक्ति क्रोध के समय ऐसा ही समझता है कि यहॉं क्रोध करना उचित है| ऐसी परिस्थिति में क्रोध किये बिना कैसे चल सकता है ? तात्पर्य यह है कि क्रोध करनेवाले को उसी समय पर क्रोध करना योग्य लगता है| अन्य की गलतियॉं-भूल-अपराध को सुधारने के लिए जरुरी लगता है| इसलिए ऐसा विभाजन शक्य ही नहीं है कि ‘‘क्रोध करने के लिए यह समय उचित है और यह समय अनुचित है’’| इसलिए अगर क्रोध करते समय ‘यह क्रोध करना उचित नहीं है’ इतनी बात ध्यान में आ जाए, तो-तो मान लीजिए की काम हो गया| क्रोध होगा ही नहीं| इसलिए हर क्रोध के अवसर पर हमें यह याद आना जरुरी है कि ‘‘यह क्रोध अयोग्य है|’’ संक्षिप्त में यह सभी बातों से यह फलित होता है कि अन्य की भूल पर या तो अन्य की गलती को सुधारने के नाम पर भी क्रोध करना अनुचित है और यदि हो गया तो पछतावा ही करने जैसा है|

बात यह थी कि- शिष्य आदि के प्रमादवगैरह को देखकर चंडरुद्राचार्य बार बार क्रोधित होते थे और बादमें पश्चाताप करते थे| ऐसा पछतावा उचित ही है| इस तरह बार बार होने पर आचार्य भगवंतने विचार किया कि मेरी सभी आराधनाओंको मैं इस तरह बार-बार क्रोध करके गँवा देता हूँ और क्रोध करने के बाद मेरा चित्त ध्यान-साधनामें केन्द्रित नहीं बन सकता| (सीधी सी बात है कि उबलता पानी स्थिर नहीं रह सकता) यदि मुझे आराधना और साधनामें आगे बढ़ना होगा तो क्रोध के निमित्त से दूर ही रहना चाहिए| ऐसा सोचकर आचार्य भगवंत ज्यादातर समय दूर के कमरे में अकेले रहकर अपनी साधना करते थे|

क्रोध   एक अग्नि
जब सभी युवक साथ मिलकर चंडरुद्राचार्य के पास आये, तब आचार्य भगवंत अपनी आराधना में मग्न थे| आचार्य भगवंत को आराधनामें करते हुए सभी युवक कहने लगे कि, ‘‘आचार्य महाराज ! यह युवक संसारसे विरक्त होकर आपका शिष्य बनना चाहता है| कृपया, आप उसको दीक्षा प्रदान करने का अनुग्रह कीजिए’’ चंडरुद्राचार्य का स्वभावगत क्रोध अपनी आराधनामें ऐसा विघ्न आने के कारण उछलने लगा और युवक को क्रोधित स्वर में पूछा, ‘‘क्या तू साधु बनना चाहता है ?’’ आचार्य भगवंत को गुस्सा करते देखकर आचार्य भगवंत को अधिक चिढ़ाने का मजा लेने हेतु युवकने कहा ‘‘हॉं, करुणासागर ! संसार के दावानल से भयभीत होकर मैं आपके चरणोमें आया हूँ| आप मुझे शिष्य बना दीजिए|’’

अब ऐसी बदमाशी से अधिक क्रोधित होकर चंडरुद्राचार्य ने कहा- यदि दीक्षा लेनी है, तो जल्दी से भस्म लेकर आओ ! केश लुंचन करके मैं तुझे अवश्य दीक्षा प्रदान करुँगा| एक युवकने इस प्रसंग का रंग बराबर जमाने के लिए जल्दीसे भस्म लाकर आचार्य भगवंत के हाथ में दे दी| आचार्यने उस युवक को बराबर अपने कब्जे में ले लिया | बादमें खुद ही क्रोध के तीव्र आवेश से ऐसे अभिभूत हो गये कि शीघ्र ही युवक के केश को खिंच-खिंचकर उतारने लगे| अब बाजी बिगड़ती जा रही है ऐसा देखकर शुरुआतमें तो युवक ने आचार्य के हाथमेंसे मुक्त होने का प्रयत्न किया| किन्तु आचार्य की मजबूत पकड़ होने के कारण वह मुक्त न हो सका और तब तक तो काफी केश का लुंचन हो चूका था| वह युवक विचार करने लगा कि अब तो जो होगा सो होगा, यह नाटक इतना हुआ है, तो अब उसे पूरा ही होने दो, मैं तो अब साधु ही बन जाऊँगा| थोड़ी देरमें ही आचार्यने युवक के मस्तक को चकाचक कर दिया| सभी केश खिंचकर निकाल दिये | आचार्यने युवक को साधु बनाकर अपना शिष्य बना लिया| ऐसी गंभीर परिस्थिति से भयभीत होकर दीक्षित युवक के सभी मित्र वहॉं से नौ-दो-ग्यारह हो गये|

अब नूतन शिष्यने आचार्य भगवंत को कहा, गुरुदेव ! आपकी हँसी उड़ाने के लिए मैंने आपके पास दीक्षा की याचना की थी और आप कृपालुने सचमुच दीक्षा देकर मेरे पर अमाप अनुग्रह किया है| अब मैं आपका शिष्य हूँ और श्रमणजीवन पालन करने की इच्छा कर रहा हूँ| किन्तु एक कठिनाई है|

क्रोधमें अपने दुःसाहससे कुछ लज्जित होते हुए और युवक की दृढ़ता से प्रभावित होते हुए गुरुने नूतन शिष्य को पूछा, आपको क्या कठिनाई है ? युवकने कहा, आज सुबह ही मेरी शादी हुई है ! इसलिए मेरे काफी स्वजन मेरे घर पर एकत्र हुए हैं| वे सभी लोग मेरी दीक्षा को नामंजूर करेंगे| मेरी पत्नी को आगे रखकर वे मुझे ले जायेंगे और आपको तकलीफ देंेगे| शिष्य की बात सुनते ही परिस्थिति की गंभीरता से चिंतित चंडरुद्राचार्य ने कहा, ‘‘वत्स ! अब क्या करेंगे ?’’ नूतन मुनिराजने कहा- ऐसा हो सकता है कि आप और मैं विहार करके अन्य गॉंवमें चले जाए| पूरा समुदाय यहॉं ही रहेगा क्योंकि सब साथ में रहेंगे तो पता चल जाएगा कि हम कहॉं गये हैं| मुझे लग रहा है कि ऐसा करने से हम स्वजनोंसे बच पायेंगे| फिर भी आप की इच्छा ही सर्वोपरि है| चंडरुद्राचार्यने कहा- ‘‘तो फिर आप रास्ता देखकर आओ क्योंकि अँधेरे में रास्ता दिखाई नहीं देगा’’ और नूतन मुनिराज रास्ता देखकर आये|

शाम हाने के बाद अंधेरे में विहार करते समय नूतन शिष्य आगे चलने लगे और उनका हाथ पकड़कर पीछे-पीछे वृद्ध आचार्य चलने लगे| अँधेरेमें रास्ता बराबर नहीं दिखाई देने पर पैर उलटे सीधे पड़ने लगे| ऐसी परिस्थिति होने पर बार बार शरीरको झटके लगने से वृद्ध आचार्य को त्रास होने लगा और चंडरुद्राचार्य का स्वभावगत क्रोध उबलने लगा| पहले तो आचार्य भगवंतने नूतन मुनिराज को अच्छे रास्ते पर चलने की सूचना दी| फिर भी अँधकार के कारण गड़बड़ होते रहने से आचार्य का क्रोध अधिक भड़कने लगा और उन्होंने आक्रोश भरे वचन सुनाना शुरु कर दिया| फिर भी परिस्थितिमें कुछ सुधार न होने पर अत्यंत आवेशमें आकर आचार्य भगवंतने अपने हाथमें थामे हुए दंडेसे नूतन मुनिराज के सिर पर प्रहार किया|

फिर भी नूतन मुनिराज बिलकुल स्वस्थ रहकर समताभावसे आचार्य भगवंत के दंड का प्रहार सहन करने लगे| एक ही लक्ष्य रखा, ‘‘गुरुभगवंत मेरे परम उपकारी हैं और मैंने ऐसी असह्य परिस्थितिमें लाकर गुरुभगवंत को परेशान किया| गुरुदेव तो स्वयं की आराधनामें मस्त थे| मैंने ही हँसी उडाते दीक्षा के नामसे गुरुदेव को तंग कर दिया | और अब जब संसार से मेरा उद्धार किया, तो इस तरह विहार कराके उनको अधिक कष्ट दे रहा हूँ’’ बस, गुरु भगवंत के उपकार और अपनी भूलों को नजरमें रखकर, उच्च भावना से भावित होते होते नूतन मुनिराजने कैवल्यज्ञान की प्राप्ति कर ली| अब तो ज्ञान के प्रभावसे रास्ता बराबर दिखाई दे रहा था| इसलिए नूतन मुनि अब अच्छी तरह से चलने लगे| गुरु भगवंत यह समझते हैं कि डंडा फटकारने से शिष्य सुधर गया है|’’

सुबह होते ही आकाश में उजाला छाने लगा| तब गुरुने नूतन शिष्य को पूछा, किस कारण से आप बादमें बराबर चलने लगे ? तब केवलज्ञानी नूतन शिष्यने कहा, ‘‘ज्ञान के प्रभावसे !’’ यह सुनकर आश्चर्यमूढ़ होते हुए आचार्यने पुनः प्रश्न किया, ‘‘कौनसे ज्ञान से ?’’ केवलज्ञानी नूतन शिष्यने प्रत्युत्तर दिया कि अप्रतिपाति ज्ञान से (कैवल्यज्ञान से) | नूतन शिष्य का जवाब सुनते ही आचार्य तो स्तम्भित हो गये और जब आचार्य भगवंतने केवलज्ञानी नूतन शिष्य के सिर पर दृष्टिपात किया, तो उन्होंने देखा कि ताजा लुँचन किये हुए नूतन मुनि के मस्तक पर दंड के प्रहार होने से खून की धारा बह रही थी|

क्रोध   एक अग्नि
नूतन दीक्षित शिष्य के धैर्य, स्वस्थता, समता, क्षमाभाव की महानता आदि विशिष्ट गुणो के सामने इतने साल तक श्रमण जीवन पालन करने पर भी स्वयं में रहे हुए क्रोध, आवेश, अधैर्य, असहिष्णुता इत्यादि दोषों को देखकर आचार्य भगवंत लज्जित हो गये और उसमें भी केवलज्ञानी की आशातना के भयंकर पापसे तो अत्यंत कॉंपने लगे| बेहद पश्चाताप और आँखोमें से आत्मनिंदा के आँसू के साथ प्रायश्चित के स्वरूप में नूतन शिष्य के पास बारबार क्षमा याचना करने से आचार्य भगवंतने भी केवलज्ञान की प्राप्ति कर ली|

‘‘मेरे गुरुदेव परम-उपकारी हैं और मैं अपराधी हूँ’’ बस इस तरह विचार करने से क्रोध के समय पर भी नूतन मुनिराजने क्षमा को धारण कर ली| यदि उन्होंने ऐसा विचार किया होता कि …..

१) मैंने तो मज़ाक में दीक्षा की बात की थी, तो क्या इस तरह दीक्षा देना उचित है ?

२) मैं तो रास्ता देखकर आया था| फिर भी घना अंधेरा होने के कारण दिखाई न दे उसमें मेरी कौन सी भूल है ?

३) तकलीफ केवल आचार्य भगवंत को ही नहीं है, तकलीफ तो मुझे भी है, उनको तो विहार की ऐसी तकलीफों का अभ्यास है| मुझे तो उस विषय का कोई अभ्यास भी नहीं है |

४) साधु बने हैं तो इतना तो सहन करना ही चाहिए न ? यदि इतना भी सहन नहीं कर सकते तो इतने साल साधु जीवन बीताकर क्या किया ?

५) मुझे तो साधुजीवन का बिलकुल अभ्यास नहीं है, मैं नया साधु हूँ| और मुझे तो जबरदस्ती से साधु बनाया गया है, इसलिए मेरी देखभाल रखने की फर्ज आचार्य भगवंत की है| देखभाल रखने की बात तो छोड़ो, उपरसे मुझे धमकाकर मारते हैं|

६) मुझे इस तरह दीक्षा देकर आपने बड़ी गलती की है| वह तो मेरी खानदानी है कि मैंने इस तरह की दीक्षा का भी स्वीकार कर लिया और स्वजनआदि के द्वारा आपको संभवित अपमान से बचाने के लिए अंधकार भरी रात्रि के विहार में आपको साथ दे रहा हुँ| उसकी कद्र करना तो दूर रहा और उपरसे दंड !

७) मैं यहॉं कहॉं फँस गया ? आज ही मेरी शादी हुई थी| यौवनवयमें आनंद-मौजका जो समय था वह एक मज़ाक में ही खत्म हो गया और इस क्रोधी की जालमें फँस गया | मेरी पूरी जिंदगी का निर्वाह कैसे करुँगा ? यहॉं तो साक्षात् नरक है|

८) यह गुरुदेव कैसे हैं ? सभी को क्षमा का उपदेश देते हैं और स्वयं तो क्षमा नहीं रखते ! कितने दंभी हैं! मात्र स्वयं की पीड़ा को ही समझते हैं | मुझे क्या होता है ? उसकी तो कोई परवाह ही नहीं| कितने स्वार्थी हैं|

९) अँधेरे में चलना हो तो रास्ते में जहॉं-तहॉं पैर रखने की गलती तो होगी ही | यह बात तो सभी समझ सकते हैं| फिर इतना चिड़चिडाने की क्या जरुरत है ?

१०) चलो मान लेता हूँ कि मेरी मज़ाक के निमित्त से ही गुरुजी को आराधना छोड़कर ऐसे ‘‘अँधकारमें विहार’’ की परिस्थिति में आना पड़ा| लेकिन इतना क्रोध ? एक-दो बार आक्रोश करने पर बात पूर्ण हो गई| जब कि यह गुरुदेव तो क्रोध, आक्रोश, गाली प्रदान से भी आगे बढ़कर दंड के प्रहार तक पहुँच गये| ये सब कब तक सहन करुँ ? मेरा अपराध नजरमें आता है तो इतना क्रोध करने का स्वयं का अपराध क्यों नजरमें नहीं आता ? क्या वह अपराध नहीं है ? आज ही मेरे मस्तक पर से केश लुंचन हुआ है उसका भी कोई विचार नहीं ? और दंड का प्रहार करना क्या साधु के लिए उचित कार्य है ? एक सज्जन के लिए भी जो कार्य उचित नहीं, ऐसा अनुचित कार्य इतने बडे आचार्य भगवंत करे क्या यह अशोभनीय बात नहीं है ? आखिर तो मैं भी कब तक सहन करता रहूँ ?

आप ही कहो, यदि उपर में से एक भी विचार नूतन मुनिराजको आया होता, तो क्या वह क्षमा को धारण कर सकते ? और यदि क्षमा न रखते तो केवलज्ञान तक पहुँच सकते ? यदि आप भी न्याय की बात करो, तो आपके हिसाब से उपर्युक्त विचारमें एक भी विचार अयोग्य नहीं लगेगा| फिर भी ऐसा सोचने का परिणाम क्या होता ? आचार्य भगवंत के दिमागरूपी लकड़ी को तो क्रोध की आग लगी हुई थी, यदि यह शिष्य का दिमाग भी आगबबुला बन जाता, तो दावानल ही प्रकटनेवाला था| ऐसे दावानल की जलन हम भी कभी कभी महसुस तो करते ही हैं| क्या आप दावानल बुझाना चाहते हो ? तो आग के सामने आग, दियासली या ज्वलनशील पेट्रोल आदि न बनकर सिर्फ पानी बनकर जाओ| आग बुझ जाएगी| पानी बनने का फोर्म्युला है- आग बनकर सामने आनेवाले – अपराधी के रूपमें दिखाई देनेवाले के उपकार नजरमें लाना | अग्नि एक दाहक तत्त्व है| दो-चार बार अँग जल जानेका आपको अनुभव भी हुआ होगा| फिर भी आपको अग्नि पर गुस्सा नहीं आता, क्योंकि ‘‘जलाना वह तो अग्नि का स्वभाव है’’ ऐसा विचार करके अग्नि की उपेक्षा की जाती है और अग्नि के खाना पकाने के उपकार को नज़र समक्ष रखकर स्वस्थ ही रहते हैं| आप भी क्रोध के अवसर पर अपराधी के उपकार को ध्यान में रखो और अपराध को मानवस्वभावगत दोष समझकर उपेक्षा करो तो आपको क्रोध आयेगा ही नहीं | इसलिए सामान्य परिस्थिति में भी अन्य के उपकारों को सतत ध्यानमें रखकर याद करते रहो जिससे कोई कसौटी के अवसर में भी अपराधी के उपकार ही स्मरण में आते रहेंगे|

यह आलेख इस पुस्तक से लिया गया है
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