1 0 Tag Archives: जैन मान्यता
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शस्त्र या अशस्त्र ?

शस्त्र या अशस्त्र ?

अत्थि सत्थं परेण परं|
नत्थि असत्थं परेण परं||

शस्त्र एक से एक बढ़कर हैं, परन्तु अशस्त्र (अहिंसा) एक से एक बढ़कर नहीं है

इस दुनिया में हिंसा के साधन अनेक हैं और वे एक से एक बढ़कर हैं| तलवार, भाला, तीर, बन्दूक, तोप, बम और परमाणुबम (हाइड्रोजन बम) क्रमशः भयंकर से भयंकर संहारक अस्त्र हैं| यदि राष्ट्रों की आँखों से स्वार्थान्धता की पट्टी न हटी; तो भविष्य में और भी भयंकर शस्त्रों के निर्माण की सम्भावना है| Continue reading “शस्त्र या अशस्त्र ?” »

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न अपनी आशातना करो न दूसरों की

न अपनी आशातना करो न दूसरों की

नो अत्ताणं आसाएज्जा, नो परं आसाएज्जा

न अपनी आशातना करो, न दूसरों की

जो लोग हीन-मनोवृत्ति के शिकार होते हैं – अपने को तुच्छतम समझते हैं, वे इस दुनिया में उन्नति नहीं कर सकते | उनमें अपना विकास करने का – प्रगतिपथ पर आगे बढ़ने का साहस तक नहीं हो सकता – जीवनभर वे अपने को अक्षम ही समझते रहते हैं और अक्षम ही बने रहते हैं| Continue reading “न अपनी आशातना करो न दूसरों की” »

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सूक्ष्म शल्य

सूक्ष्म शल्य

सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे

सूक्ष्म शल्य बड़ी कठिनाई से निकाला जा सकता है

जो लोग पैदल चलते हैं, उन्हें मार्ग में कॉंटे चुभ जायें तो वे क्या करते हैं? दूसरे कॉंटे से अथवा सूई से निकाल लेते हैं| यद्यपि कॉंटा निकल जाने पर भी वेदना बनी रहती है, फिर भी कुछ समय बाद मिट जाती है और कुछ दिन बाद तो उसका छेद भी गायब हो जाता है| चमड़ीसे चमड़ी मिल जाती है| Continue reading “सूक्ष्म शल्य” »

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अतिवेल न बोलें

अतिवेल न बोलें

नाइवेलं वएज्जा

अधिक समय तक एवं अमर्याद न बोलें

‘वेला’ का अर्थ समय भी होता है और मर्यादा भी; इसलिए इस सूक्ति के दो अर्थ होते हैं| Continue reading “अतिवेल न बोलें” »

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निष्प्रयोजन हिंसा

निष्प्रयोजन हिंसा

अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणंति

कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ लोग बिना प्रयोजन ही

बहुत-से लोगों की यह आदत होती है कि यों ही चलते-चलते रास्ते में आये किसी पौधे को उखाड़ कर फैंक देते हैं – फूल को तोड़ कर मसल देते हैं – पेड़ की टहनी तोड़ कर हाथ में रख लेते हैं और कुछ दूर जाकर फैंक देते हैं| बहुत-सी महिलाएँ ऐसी होती हैं कि यों ही खड़ी-खड़ी अपने पॉंव के अंगूठे से जमीन कुरेदती रहती हैं| Continue reading “निष्प्रयोजन हिंसा” »

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प्रमाद मत कर

प्रमाद मत कर

समयं गोयम ! मा पमायए

हे गौतम! तू क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर

गौतमस्वामी को, जो महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य थे – प्रधान गणधर थे, यह प्रेरणा दी गई थी कि आत्मकल्याण के मार्ग में चलते हुए क्षण भर के लिए भी तू प्रमाद मत कर| Continue reading “प्रमाद मत कर” »

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बीच में न बोलें

बीच में न बोलें

राइणियस्स भासमाणस्स वा
वियागरेमाणस्स वा नो अन्तरा भासं भासिज्ज

अपने से बड़े गुरुजन (रत्नाधिक) जब बोलते हों – व्याख्यान करते हों, तब उनके बीच में नहीं बोलना चाहिये

सद्गुण ही वास्तव में रत्न हैं, चमकीले पत्थर नहीं| जो व्यक्ति अपने से अधिक गुणवान है, उसके लिए रत्नाधिक शब्द का प्रयोग शास्त्रों में आता है| रत्नाधिक गुरुजन जब बोल रहे हों, चर्चा कर रहे हों अथवा व्याख्यान कर रहे हों, तब विनीत शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह उनके बीच-बीच में न बोले| Continue reading “बीच में न बोलें” »

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मित्रों का नाशक

मित्रों का नाशक

माया मित्ताणि नासेइ

माया मित्रता को नष्ट करती है

माया शब्द का अर्थ यहॉं कपट या छल है| जिस प्रकार क्रोध प्रीति का और मान विनय का नाशक है, उसी प्रकार छल भी मित्रों का नाशक है| Continue reading “मित्रों का नाशक” »

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अकिंचनता का अनुभव

अकिंचनता का अनुभव

तण्हा हया जस्स न होइ लोहो,
लोहो हओ जस्स न किंचणाइ

जिसमें लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है और जो अकिंचन है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है

‘किंचन’ का अर्थ है – कुछ| जो समझता है कि इस दुनिया में अपना कुछ नहीं हैं, जो सोचता है कि जन्म लेते समय हम अपने साथ कोई वस्तु नहीं लाये थे और मरते समय भी अपने साथ कुछ आने वाला नहीं है – सारा धन, खेत, मकान आदि यहीं छूट जाने वाले हैं – जो जानता है कि आत्मा के अतिरिक्त समस्त वस्तुएँ जड़ हैं – क्षणभंगुर हैं, वही ‘अकिंचन’ है| Continue reading “अकिंचनता का अनुभव” »

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अदत्तादान और लोभ

अदत्तादान और लोभ

लोभाविले आययइ अदत्तं

लोभ से कलुषित जीव अदत्तादान (चोरी) करता है

जो वस्तु दे दी जाती है, वह दत्त है और जो नहीं दी गयी, वह अदत्त है| सज्जन केवल दत्त वस्तु को ही ग्रहण करना उचित समझते हैं, अदत्त वस्तु को नहीं| Continue reading “अदत्तादान और लोभ” »

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