वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि,
वेराणुबंधीणि महब्भयाणि
वेराणुबंधीणि महब्भयाणि
वाणी से बोले हुए दुष्ट और कठोर वचन जन्मजन्मान्तर के वैर और भय के कारण बन जाते हैं
वाणी से बोले हुए दुष्ट और कठोर वचन जन्मजन्मान्तर के वैर और भय के कारण बन जाते हैं
मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कहीं भी चिपकता नहीं है
स्वयं सत्यान्वेषण करना चाहिये
धर्म के दो रूप हैं – श्रुतधर्म (तत्त्वज्ञान) और चारित्रधर्म (नैतिकता)
जब तक शरीरभंग (मृत्यु) न हो तब तक गुणाकांक्षा रहनी चाहिये
विषयों की तो सभी प्राणी कामना करते रहते हैं; किंतु विवेकी व्यक्ति गुणों की कामना करते हैं| Continue reading “गुणाकांक्षा” »
रक्त-सना वस्त्र रक्त से ही धोया जाये तो वह शुद्ध नहीं होता
जहॉं कहीं भी धर्माचार्य दिखाई दें, वहीं उन्हे वन्दना नमस्कार करना चाहिये
आत्मसाधक ममत्व के बन्धन को तोड़ फेंके; जैसे महानाग कञ्चुक को उतार देता है