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त्यागी कौन नहीं ?

त्यागी कौन नहीं ?

अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइ त्ति वुच्चई

जो पराधीन होने से भोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी नहीं कहा जा सकता

कल्पना कीजिये – दो व्यक्तियों के पास सौ-सौ रुपये हैं| एक उनमें से पचास रुपयों का दान कर देता है और दूसरे व्यक्ति के पचास रुपये कहीं खो जाते हैं| इस प्रकार दोनों के पास बराबर पचास-पचास रुपये ही बचे रहते हैं; फिर भी हम पहले व्यक्ति को ही त्यागी कहेंगे, दूसरे को नहीं| ऐसा क्यों! Continue reading “त्यागी कौन नहीं ?” »

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त्रास मत दो

त्रास मत दो

न य वि त्तासए परं

किसी भी अन्य जीव को त्रास मत दो

कष्ट ! कितनी बुरी वस्तु है यह| नाम सुनकर भी मन को कष्ट की अनुभूति होने लगती है| कौन है, जो चाहेगा ? कोई नहीं| Continue reading “त्रास मत दो” »

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जीव विचार – गाथा 8

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मैं अन्य हूँ

मैं अन्य हूँ

ए खलु कामभोगा, ओ अहमसि

कामभोग अन्य हैं, मैं अन्य हूँ

मधुर संगीत, सुन्दर दृश्य, इत्र, पुष्प हार, मिठाई, नमकीन, कोमल एवं शीतल वस्तु का स्पर्श आदि अनेक कामभागों की विविध आकर्षक सामग्री इस जगत में सर्वत्र बिखरी पड़ी है| Continue reading “मैं अन्य हूँ” »

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मैं अकेला हूँ

मैं अकेला हूँ

एगे अहमसि, न मे अत्थि कोई,
न वाऽहमवि कस्स वि

मैं अकेला हूँ – मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ

यह संसार एक महान सरोवर की तरह है, जिसमें तिनकों की तरह प्राणी इधर-उधर से बहकर आते हैं, मिलते हैं, कुछ समय साथ रहते हैं और हवा का झोंका लगते ही (मृत्यु का धक्का लगते ही) पुनः इधर-उधर बिखर जाते हैं| Continue reading “मैं अकेला हूँ” »

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भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 6

भक्तामर स्तोत्र   श्लोक 6

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् |
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चारु – चूत – कलिका – निकरैकहेतुः ||5||

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प्राणवध कैसा है?

प्राणवध कैसा है?

पाणवहो चंडो रुद्दो, खुद्दो, अणारियो,
निग्धिणो, निसंसो, महब्भभओ

प्राणवध चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है, क्रूर है, भयंकर है

प्राणवध का अर्थ है – प्राणों की हिंसा, प्राणों का नाश| इसका स्वरूप प्रकट करते हुए अथवा इसका परिचय देते हुए ज्ञानियों ने कहा है :- प्राणवध बड़ा ही प्रचण्ड है-उग्र है-असह्य है; क्योंकि इसे कोई सह नहीं सकता| Continue reading “प्राणवध कैसा है?” »

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मूर्च्छा ही परिग्रह है

मूर्च्छा ही परिग्रह है

मुच्छा परिग्गहो वुत्तो

मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा गया है

मूर्च्छा या आसक्ति ही परिग्रह है| अपने चारों ओर जो सामग्री होती है, वह सब परिग्रह नहीं कहलाती; परन्तु जिस सामग्री को हम अपनी समझते हैं अर्थात् जिस सामग्री पर हमारी ममता जागृत हो जाती है, वही परिग्रह कहलाती है| Continue reading “मूर्च्छा ही परिग्रह है” »

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64 कला

64 कला
व्यवहारिक ४४ कलाएँ -

1. ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि की विधि
2. हाथी, घोड़ा, रथ आदि चलाना
3. मिट्टी और कांच के बर्तनों को साफ रखना
4. लकड़ी के सामान पर रंग-रोगन सफाई करना
5. धातु के बर्तनों को साफ करना और उन पर पालिश करना
6. चित्र बनाना
7. तालाब, बावड़ी, कमान आदि बनाना Continue reading “64 कला” »

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जियो और जीने दो

जियो और जीने दो

पाणिवहं घोरं
अपने सौंदर्य के साधनों के लिये मूक प्राणियों का उपयोग हो रहा हैं|

हमे इस जीव हिंसा के पाप से बचना होगा| Continue reading “जियो और जीने दो” »

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