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कर्मों का बन्धन

कर्मों का बन्धन

जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं,
तमेव आगच्छति संपराए

पहले जो जैसा कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है

लकड़ी के गेंद को यदि पानी में डाल दिया जाये तो वह डूबेगी नहीं, तैरेगी| आत्मा उससे अधिक हल्की है – बहुत हल्की; फिर भी वह संसार में डूबी हुई है| ऐसा क्यों ? Continue reading “कर्मों का बन्धन” »

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अज्ञ अभिमान करते हैं

अज्ञ अभिमान करते हैं

बालजणो पगभई

अज्ञ अभिमान करते हैं

विद्या से विनय पैदा होना चाहिये| बिना विनय के विद्या में वृद्धि नहीं होगी और प्राप्त विद्या भी धीरे-धीरे क्षीण होने लगेगी| विनय से ही विद्या की शोभा होती है| अतः अपनी विद्वत्ता की शोभा के लिए भी इस विनय नामक गुण को अपनाने की आवश्यकता है| Continue reading “अज्ञ अभिमान करते हैं” »

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बूढे बैल

बूढे बैल

तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि जरग्गवा

चढ़ाई के मार्ग में बूढे बैलों की तरह साधनामार्ग की कठिनाई में अज्ञ लोग खि होते हैं

साधना के मार्ग में बहुत धीरज से चलते रहने की आवश्यकता होती है| उसमें संकट आते हैं – कठिनाइयॉं आती हैं – बाधाएँ आती हैं| बुद्धिमान साधक यह सोचते हैं कि यह सारा उपद्रव हमारे धैर्य की परीक्षा के लिए हो रहा है| Continue reading “बूढे बैल” »

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रसना पर अंकुश

रसना पर अंकुश

अप्पपिण्डासि पाणासि अप्पं भासेज्ज सुव्वए

सुव्रती व्यक्ति कम खाये, कम पीये और कम बोले

जीभ के दो काम हैं – स्वाद लेना और बोलना| दोनों में संयम की बड़ी आवश्यकता है| Continue reading “रसना पर अंकुश” »

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असंवृत्तों का मोह

असंवृत्तों का मोह

मोहं जंति नरा असंवुडा

असंवृत मनुष्य मोहित हो जाते हैं

जो असंयमी हैं – इन्द्रियों को जो अपने वश में नहीं रख सकते – मन पर जिनका बिल्कुल अधिकार नहीं है; ऐसे लोग विषयों के प्रति शीघ्र आकर्षित हो जाते हैं| Continue reading “असंवृत्तों का मोह” »

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अभयदान

अभयदान

दाणाण सेट्ठं अभयप्पयाणं

अभयदान श्रेष्ठ दान है

Continue reading “अभयदान” »

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समझ लीजिये

समझ लीजिये

संबुज्झह, किं न बुज्झह?
संबोही खलु पेच्च दुल्लहा

समझो! क्यों नहीं समझते मरने पर संबोध निश्‍चित रूप से दुर्लभ है

अपने अपने शुभाशुभ कर्मों का भोग करते हुए प्राणी इस संसार में चौरासी लाख योनियों में जन्म लेते और मरते रहते हैं| मनुष्य मर कर मनुष्य के रूप में ही जन्म लेता है – ऐसा निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता| Continue reading “समझ लीजिये” »

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क्रोध न करें

क्रोध न करें

वुच्चमाणो न संजले

साधक को कोई यदि दुर्वचन कहे; तो भी वह उस पर क्रोध न करे

मनुष्य से जाने-अनजाने भूलें होती ही रहती हैं| अपनी भूलें स्वयं अपने को मालूम नहीं होतीं; इसीलिए “गुरुदेव” की जीवन में आवश्यकता होती है| वे दयावश हमें सुधारने के लिए हमारी भूलें बताते हैं| यदि हम उनके निर्देश के अनुसार विनयपूर्वक एक-एक भूल को सुधारते रहें; तो क्रमशः हमारा जीवन शुद्ध से शुद्धतर होता चला जाये| Continue reading “क्रोध न करें” »

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निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु

सारदसलिलं इव सुद्धहियया,
विहग इव विप्पमुक्का,
वसुंधरा इव सव्वफासविसहा

मुनियों का हृदय शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है| वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दुःखों को समभाव से सहन करने वाले होते हैं

बरसातके दिनों में नदी का जो पानी चाय या कॉफी की तरह मिट्टी के मिश्रण से लाल या काला दिखाई देता है, वही शरद्काल में निर्मल हो जाता है| मुनिजनों का हृदय भी वैसा ही निर्मल होता है| उसमें विषय कषाय की मलिनता का अभाव होता है| Continue reading “निर्मल, मुक्त एवं सहिष्णु” »

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अमनोज्ञ शब्द न बोलें

अमनोज्ञ शब्द न बोलें

तुमं तुमं ति अमणुं, सव्वसो तं न वत्तए

तू, तुम जैसे अमनोहर शब्द कभी नहीं बोलें

मॉं को और ईश्‍वर को ‘तू’ कहा जाता है, शेष सबको ‘आप’ कहना चाहिये| ‘आप’ शब्द सन्मान दर्शक है| दूसरों से बातचीत करते समय अथवा पत्र व्यवहार में इसी शब्द का प्रयोग करना चाहिये| यदि हम दूसरों के लिए ‘आप’ शब्द का प्रयोग करेंगे; तो दूसरे भी हमारे लिए ‘आप’ शब्द का प्रयोग करके हमें सन्मान देंगे| Continue reading “अमनोज्ञ शब्द न बोलें” »

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