भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम् |
सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् || 1 ||
भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 1
गुणनाश के कारण
चउहिं ठाणेहिं सन्ते गुणे नासेज्जा कोहेणं,
पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिनिवेसेणं
पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिनिवेसेणं
मनुष्य में विद्यमान गुण भी चार कारणों से नष्ट हो जाते हैं – क्रोध, ईर्ष्या, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह
संयम और तप
संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ
संयम और तप से आत्मा को भावित (पवित्र) करता हुआ साधक विहार करता है
मृत्यु का आगमन
नत्थि कालस्स णागमो
मृत्यु किसी भी समय आ सकती है
डरना नहीं चाहिये
ण भाइयव्वं, भीतं खु भया अइंति लहुयं
डरना नहीं चाहिये| भीत के निकट भय शीघ्र आते हैं
दुःख कोई बाँट नही सकता
अस्स दुक्खं ओ न परियाइयति
कोई किसी दूसरे के दुःख को बाँट नहीं सकता
परिहास न करें
न यावि पे परिहास कुज्जा
बुद्धिमान को कभी उपहास नहीं करना चाहिये
जीव विचार – गाथा 2
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उत्तम शरण
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं
धर्म द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उत्तम शरण है
प्रियकर प्रियवादी
पियंकरे पियंवाइ, से सिक्खं लद्धुमरिहइ
प्रिय करनेवाला और प्रिय बोलनेवाला अपनी शिक्षा प्राप्त करने में समर्थ होता है