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भक्तामर स्तोत्र – श्लोक 4

वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशांककान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया ?
कल्पान्तकाल – पवनोद्धत – नक्रचक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ? ||4||


अर्थ :

हे गुण-समुद्र जिनेश्‍वर ! क्या चन्द्रमा के समान (स्वच्छ, आनन्द रूप एवं आल्हाददायक) आपके अनन्त गुणों का वर्णन करने में देव-गुरु बृहस्पति के समान बुद्धिमान् भी समर्थ हो सकता है ? (नहीं !) भला, प्रलयकाल के तूफानी पवन से उछाल मारते, भयानक मगरमच्छ आदि से क्षुब्ध महासमुद्र को कोई मानव अपनी भुजाओं से तैर कर पार कर सकता है ? (अर्थात, कोई नहीं !) अतः आपके गुणों को गाने के लिए मैं भी समर्थ नहीं हूँ |

भक्तामर स्तोत्र - यंत्र 4

ऋद्धि : ॐ ह्रीँ अर्हँ णमो सव्वोहिजिणाणं|

मंत्र : ॐ ह्रीँ श्रीँ क्लीँ जलदेवताभ्यो नमः स्वाहा|

विधि : इस स्तोत्र, रिद्धि तथा मंत्र का स्मरण करने से और यन्त्र पास रखने से पानी से होनेवाली बाधाए मिटटी हैं, पानी का भय दूर होता हैं और डूबने से बचते हैं और कोई वाहन भी पानी में डूबता नहीं| 108 बार अथवा 21 या 7 बार कंकड को मंत्रित करके जाल में दाल देने से मछलियॉं जाल में नही फँसती|

प्रभाव : जाल में मछलियॉं नही फँसती है तथा जल का भय दूर होता है और पानी की बाधाए भी मिटटी हैं|


संदर्भ
1. भक्तामर दर्शन – आचार्यदेव श्रीमदविजय राजयशसूरिजी
2. भक्तामर स्तोत्र – दिवाकर प्रकाशन


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1 Comment

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  1. ashok
    सित॰ 8, 2012 #

    Good

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