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दुःख परकृत नहीं होता

दुःख परकृत नहीं होता

अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे

दुःख स्वकृत होता है, परकृत नहीं

सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं| कोई अन्य प्राणी किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता| यह सिद्धान्त हमें अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी बनाता है|

जब अपने सुख का दायित्व अपने ही ऊपर है, तब क्यों न अच्छे काम करके हम सुख-प्राप्ति की कोशिश करें?

इसी प्रकार जब हमें इस बात पर पूरा विश्‍वास है कि हमारे दुःखों का दायित्व हम पर ही है, किसी अन्य पर नहीं; तब क्या हम बुरे कार्यों से बचने का कोई प्रयास नहीं करेंगे ? अवश्य करेंगे|

जो लोग अनियमित भोजन करते हैं – गरिष्ठ भोजन का सेवन करते हैं – स्वाद के लोभ में पड़ कर आवश्यकता से अधिक खाते हैं, वे बीमारी को निमन्त्रण देते हैं और जब वह शरीर में पैदा हो जाती है, तब लम्बे समय तक खटिया पर पड़े रहते हैं| यह कष्ट स्वयं उन्हीं की भूल से पैदा हुआ है – यदि वे ऐसा जान लें; तो कभी दुबारा स्वाद के लोभ में नहीं पड़ सकते | यही बात अन्य भूलों को न दुहराने के बारे में भी कही जा सकती है| इसलिए यह मानना चाहिये कि दुःख स्वकृत होता है, परकृत नहीं|

- भगवती सूत्र 17/5

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2 Comments

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  1. Abhi
    अप्रैल 27, 2012 #

    Very nice blog.. Keep up the good work!

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