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बीच में कहॉं ?

बीच में कहॉं ?

जस्स नत्थि पुरा पच्छा
मज्झे तस्स कुओ सिया ?

जिसके आगे-पीछे न हो, उसके बीच में भी कैसे होगा?

जिसके लिए आगे-पीछे नहीं है, उसके लिए बीच में भी कुछ कहॉं से हो सकता है? Continue reading “बीच में कहॉं ?” »

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आप स्वयं अपने मित्र है|


पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं,
किं बहिया मित्तमिच्छसि

हे पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है| अन्य बाहर के मित्रों की चाह क्यों रखता है ?

कहते हैं, ईश्‍वर भी उसीकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करता है| इसका आशय यही है कि दूसरों की सहायता की आशा न रखते हुए हमें स्वयं ही अपने कर्त्तव्य का पालन करते रहना चाहिये| Continue reading “आप स्वयं अपने मित्र है|” »

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सदा जागृत

सदा जागृत

सुत्ता अमुणी, मुणीणो सया जागरंति

जो सुप्त हैं, वे अमुनि है मुनि तो सदा जागते रहते हैं

जो अमुनि हैं-असाधु हैं; जिनमें साधुता या साधकता का अभाव है, वे आलसी लोग सोते रहते हैं| जो सोते हैं, उनकी आँखें बन्द रहती हैं और उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता| इसी प्रकार जो असाधु हैं; उनके विवेक – चक्षु बन्द रहते हैं और इसीलिए उन्हें अपने कर्त्तव्य अकर्त्तव्य का भान नहीं रहता| वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ बने रहते हैं| Continue reading “सदा जागृत” »

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अति मात्रा में नहीं लेते

अति मात्रा में नहीं लेते

नाइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे

जो अति मात्रा में अ-जल ग्रहण नहीं करता, वही निर्ग्रन्थ है

बहुत-से लोग हैं, जो स्वाद के लालच में ठूँस-ठूँस कर भोजन कर लेते हैं और फिर लम्बे समय तक बीमारी भोगते रहते हैं| Continue reading “अति मात्रा में नहीं लेते” »

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अनन्यदर्शी बनें

अनन्यदर्शी बनें

जो अणण्णदंसी से अणण्णारामे

जो अनन्यदर्शी होता है, वह अनन्याराम होता है और जो अनन्याराम होता है, वह अनन्यदर्शी होता है

‘स्व’ या आत्मा के अतिरिक्त जो अन्यत्र अपनी दृष्टि नहीं रखता, वह अनन्यदृष्टि है| ऐसा व्यक्ति अन्यत्र रमण न करने से ‘अनन्याराम’ कहलाता है| Continue reading “अनन्यदर्शी बनें” »

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एकज्ञ-सर्वज्ञ

एकज्ञ सर्वज्ञ

जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ|
जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ||

जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है

जिसे एक (आत्मा) का ज्ञान है, उसे सब (अनात्म पदार्थों) का ज्ञान है और जिसे सब (अजीव तत्त्वों) का ज्ञान है, उसे एक (आत्मतत्त्व) का ज्ञान है|

जिसे आत्मस्वरूप का सम्यग्ज्ञान हो जाता है, वह अनात्मतत्त्वों में रमण नहीं करता; क्यों कि वह आत्मभि पदार्थों के स्वरूप को – उनकी क्षणिकताको भी जान लेता है| Continue reading “एकज्ञ-सर्वज्ञ” »

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जीवन की क्षणभुंगरता

जीवन की क्षणभुंगरता

वओ अच्चेति जोव्वणं च

आयु बीत रही है और युवावस्था भी

ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों-त्यों हमारी आयु भी क्रमशः व्यतीत होती जाती है| जब से हमने जन्म लिया है – आँखें खोली हैं, दुनिया देखी है; तभी से हमारी अवस्था एक – एक क्षण घटती जा रही है| लोग समझते हैं कि हम बड़े हो रहे हैं; परन्तु वास्तविकता यह है कि वे छोटे हो रहे हैं| जितने दिन-रात बीतते जाते हैं; उतने निर्धारित आयु में से घटते जाते हैं| इस प्रकार आयुष्य प्रतिक्षण क्षीण से क्षीणतर होता जाता है| Continue reading “जीवन की क्षणभुंगरता” »

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वीर्यको न छिपायें

वीर्यको न छिपायें

नो निह्नवेज्ज वीरियं

वीर्य को छिपाना नहीं चाहिये

जो शक्तिशाली हैं, उन्हें अपनी शक्ति का प्रयोग दूसरों की रक्षा के लिए करना चाहिये|

जो बुद्धिमान हैं, उन्हें अपनी बुद्धि का उपयोग दूसरों के झगड़े मिटाने में करना चाहिये| Continue reading “वीर्यको न छिपायें” »

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मन के जीते जीत

मन के जीते जीत

इमेण चेव जुज्झाहि,
किं ते जुज्झेण बज्झओ ?

आन्तरिक विकारों से ही युद्ध कर, बाह्य युद्ध से तुझे क्या लाभ?

कहावत है :- ‘‘लड़ाई में लड्डू नहीं बँटते !’’ इसका आशय यह है कि युद्ध में लाभ कुछ नहीं होता| दोनों पक्षों को हानि ही उठानी पड़ती है – एक को कुछ अधिक तो एक को कुछ कम| Continue reading “मन के जीते जीत” »

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मृत्यु का आगमन

मृत्यु का आगमन

नत्थि कालस्स णागमो

मृत्यु किसी भी समय आ सकती है

मृत्यु! कितना भयंकर शब्द है यह? कौन इसे पाना चाहता है? कोई नहीं! घर में किसी की मृत्यु हो जाये तो सारा परिवार शोकसागर में निमग्न हो जाता है| Continue reading “मृत्यु का आगमन” »

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